ग़ज़ल के दोष
वर्तमान में ग़ज़ल कहने वालों की बाढ़ आ गई है। जिसे देखिये वही ग़ज़ल को सबसे सरल विधा समझकर बिना अरुज जाने बूझे जोर आजमाइस कर रहा है। परिणामस्वरूप ग़ज़लें बहर से ख़ारिज तो होती ही हैं साथ ही उनमें दोष भी होते हैं। ग़ज़ल कहते समय हमें निम्नलिखित दोषों से बचना चाहिये।
1. कर्ता,क्रिया,कर्म आदि का अपने स्थान पर न होना।
जैसे - कहा बन्दे से तू संभल जा खुदा ने
नहीं तो बुरा हश्र होगा किसी दिन
इसमें ऊला मिसरा में कर्ता,क्रिया,कर्म कोई भी अपने स्थान पर नहीं है। अतः इस शेर में दोष है। इस दोष को उर्दू में ताक़ीदे - लफ़्जी कहते हैं।
इसे यूँ कहा जा सकता है-
खुदा ने कहा बन्दे से तू संभल जा
नहीं तो बुरा हश्र होगा किसी दिन
इस प्रकार कर्ता,क्रिया,कर्म आदि सभी ने अपना स्थान ले लिया है।
2. किसी शेर में किसी षब्द की कमी होना या क्रिया अपूर्ण होना भी शेर के दोष में गिना जाता है। इसे हज़्फे़ लफ़्ज कहा जाता है।
जैसे - ‘‘रात दिन सब एक ही धुन में लगे’’
उपरोक्त पंक्ति में ‘‘है’’ की कमी खटक रही है। क्रिया अपूर्ण है अतः इसको इस प्रकार से दुरुस्त कर हज़्फ़े लफ़्जी दोष को दूर किया जा सकता है।
‘‘रात दिन सब एक ही धुन में लगे हैं।’’
3. दो बेमेल चीजों को या बातों को मिलाना भी शेर के दोष हैं। इसे ऐबे शुतुरगर्बा कहते हैं। शुतुर का अर्थ है ऊँट और गर्बा का अर्थ है बिल्ली अर्थात ऊँट के गले में बिल्ली बाँधना।
जैसे - तू अब बाहर निकल आ अपने घर से
तुम्हे भी जुल्म से लड़ना पड़ेगा
उपरोक्त शेर में पहली पंक्ति में ‘‘तू’’ आया है और दूसरी पंक्ति में ‘‘तुम्हे’’ आया है। यहाँ ‘‘तू’’ के साथ में ‘‘तुम्हे’’ का प्रयोग न होकर ‘‘तुझे’’ का प्रयोग होना चाहिये।
दूसरा उदाहरण देखिये -
गुनाह हमसे हुये हैं हज़ारहा ‘‘आमिल’’
हरीमे नाज़ में लेकिन मिरी रसाई है।
यहाँ पहली पंक्ति में ‘‘हमसे’’ आया है जबकि दूसरी पंक्ति में ‘‘मिरी’’ का प्रयोग शायर पे किया है। यहाँ ‘‘हमसे’’ के संदर्भ में ‘‘हमारी’’शब्द आयेगा। ‘‘मिरी’’ का प्रयोग करके शायर ने अनजाने में शुतरुगर्बा को दोष शेर मे ला दिया है परन्तु ‘‘मिरी’’ के स्थान पर ‘‘हमारी’’ शब्द का प्रयोग करने से शेर बहर से खारिज़ हो जावेगा। अतः ‘‘मिरी’’ के संदर्भ में ऊपर के मिसरे में ‘‘हमसे’’ की जगह ‘‘मुझसे’’ को लाना पड़ेगा।
4. जब दो समान अक्षर इस प्रकार पास पास आ जावे कि उनका उच्चारण बाधित हो अर्थात प्रवाहपूर्ण उच्चारण न हो तब शेर में एक प्रकार का दोष उत्पन्न हो जाता है। इसे ऐबे तनाफ़ुर कहते हैं।
जैसे ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या क़सम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूँ
उपरोक्त शेर में ‘‘की कि खा’’ वाला भाग प्रवाह के साथ नहीं पढ़ा जा रहा है। अतः यह दोष ऐबे तनाफुर कहलायेगा।
5. कभी - कभी षेर को बहर मे रखने के लिये अनावष्यक शब्दों को रूई की तरह ठूस-ठूस कर शेर में भरते हैं। इस ऐब को ‘हष्व’ कहते हैं।
जैसे - अक्सर ये मेरा ज़ह्न भी थक जाता है लेकिन
रफ्तार ख़्यालों की कभी कम नहीं होती
इस शेर में ऊपर की पंक्ति में ‘अक्सर ये मेरा ज़ह्न’ में ‘‘ये ’’ शब्द शेर के वजन को पूरा करने के लिये जबरदस्ती भर्ती किया गया है। बगैर ‘‘ये’’ शब्द के भी शेर का भाव प्रकट होता है। अतः इसमें हष्व का दोष है। ऐसे शब्द को भर्ती का शब्द कहते हैं।
6. कभी - कभी शायर अपनी बात को शेर में स्पष्ट प्रकट करने में असमर्थ रहता है। शायर क्या कहना चाहता है शायर तो समझता है परन्तु सुनने वाला नहीं समझ पाता और शेर बेमानी होकर रह जाता है। अतःशेर में बात खुल कर आनी चाहिये।
जैसे - कितनी मेहनत से आपकी ख़ातिर
तोड़ लाये हैं आसमान से हम
शायर कहना चाहता है कि वह आसमान से आपके लिये तारे तोड़कर लाया है परन्तु यह बात हम और आप नहीं समझ पा रहे हैं यह तो केवल षायर ही जानता है। वह पहेलियाँ बुझा रहा है। अतः ऐसा शेर बेमानी है जिसका अर्थ न निकले।
7. शेर मे जिन शब्दों को बतौर क़ाफ़िया इस्तेमाल करते हैं उन षब्दों की कोई भी मात्रा या अक्षर बहर के मुताबिक भी नहीं गिरना चाहिये।
जैसे - सफर ये साँस का अब खत्म होने वाला है
जो जागता था मुसाफिर वो सोने वाला है
क्योंकि बहर मफाइलुन फइलातुन मफाइलुन फैलुन के अनुसार
यहाँ ‘‘होने’’ और ‘‘सोने’’ क़ाफ़िया है मगर ‘‘ होने’’ और ‘‘सोने’’ में अंतिम अक्षर ‘‘ने‘‘ का वजन गिराया गया है जो कि गलत है।
8.काफिया दो के होते हैं
शुद्व काफिया और योजित काफिया। शुद्व काफिया कलाम,गुलाम हवा, दवा रहम, करम आदि। योजित काफिया वे होते हैं जिनमें किसी शुद्व काफिये में कुछ अंष जोड़कर नया काफिया बना दिया जावे। जैसे ‘दोस्त’ और ‘दुष्मन’ में ‘ई’ जोड़कर दोस्ती और दुष्मनी कर दिया जावे। इसी प्रकार झुग्गी को झुग्गियाँ और कामगार को कामगारों कर दिया जावे तो ये योजित काफिये कहलाते हैं। बढ़ा हुआ अंष हटा देने पर बचा हुआ अंष हम काफिया नहीं है तो काफिया अषुद्व हो जायेगा बषर्ते उनमें व्याकरण भेद न हो। जैसे - दफ्तरों से ओं हटा देने पर दफ्तर बचता है और झुग्गियों से यों हटा देने से झुग्गी शेष बचता है। अब दफ्तर और झुग्गी हम काफिया नहीं हैं तो दफ्तरों और झुगिगयों का काफिया बाँधना गलत होगा। लेकिन किसी क़ाफ़िये के अंतिम अक्षर या मात्रा को हटा देने पर यदि बचा हुआ शब्द निर्रथक हो जाता है तो वह शुद्ध क़ाफ़िया होगा। जैसे ‘ज़िन्दगी’ में ई की मात्रा हटा देने पर शब्द ज़िन्दग बचता है जिसके कोई मायने नही अर्थात शब्द निर्थक हो जाता अतः यह काफिया शुद्ध है और इसे काफिया के रूप में प्रयोग किया जा सकता है परन्तु ‘दोस्ती’ और दुष्मनी में ऐसा नहीं है। दोनो के अन्त के अक्षर अर्थात ई की मात्रा हटा देने पर दोनो के ही शाब्दिक अर्थ निकलते हैं इसलिये इनको काफिये के रूप में प्रयोग करना उर्दू शायरी के अनुसार वर्जित है। इस दोष को ‘‘हर्फे रवी’’ दोष कहते हैं परन्तु आजकल इस नियम के पालन में बहुत ध्यान नहीं दिया जाता।
9. कलाम सबकी ज़ुबाँ पर है लाकलाम तेरा।
सलाम करता है झुक कर तुझे गुलाम तेरा।
इस मतले के शेर में क़ाफ़िया ‘लाकलाम’ के साथ ‘ग़ुलाम’ बाँधा गया है। उर्दू शायरों के अनुसार आगे का क़ाफ़िया ‘सलाम’ अर्थात ऐसे शब्द का क़ाफ़िया होना चाहिये जिनके अंत में ‘लाम’ आये, अगर अन्त में दाम,शाम,काम आदि क़ाफ़िया बाँधा गया तो वह गलत होगा। इसी प्रकार सख़्त,तख़्त,रख़्त के क़ाफ़िये में मस्त,वक्त,जब्त क़ाफ़िये नहीं आ सकते क्योंकि सख़्त,तख़्त,रख़्त के आगे आने वाले वही शब्द क़ाफ़िये हो सकते हैं जिनके अन्त में ‘‘ख़्त’’ हो। अगर गलती से इस प्रकार का काफिया बाँधा गया तो यह हर्फे कैद दोष के अन्तर्गत आयेगा।
10. मत्ला और हुस्नेमत्ला को छोड़कर गजल के अन्य किसी भी शेर के ऊला मिसरा के अन्त में रदीफ या रदीफ के समस्वर शब्द नहीं आना चाहिये यदि ऐसा होता है तो यह दोष है और इसे ‘‘तकाबुले रदीफ’’ दोष कहेंगे।
जैसे - जो बातें ख़ास हैं साहब उन्हें सब आम कर देंगे
मेरे बेटे मुझे ही एक दिन नाक़ाम कर देंगे
सड़े गल्ला भले लेकिन गरीबों को नहीं देंगे
अगर देंगे कभी तो फिर कलेज़ा थाम कर देंगे
यहाँ पर मत्ला में आम,नाकाम,थाम क़ाफ़िया है और कर देंगे रदीफ है। दूसरे शेर में ऊला मिसरा अर्थात पहली पंक्ति के अन्त में ‘‘ देंगे’’ शब्द आया है जो कि रदीफ के सम स्वर ‘‘देंगे’’ से मिल रहा है अतः यह ‘‘तक़ाबुले रदीफ़’’ दोष है। इसी प्रकार -
हर दिन एक नये सपने की दे जाता है आस मुझे
किस मंजिल पर पहँुचायेगी मेरे मन की प्यास मुझे
जिनके मन सौ - सौ पापों के दल-दल में हैं लोट रहे
वे ही ज्ञानी ध्यानी बनकर देते हैं बनवास मुझे
उपरोक्त मत्ले में रदीफ़ ‘‘मुझे’’ है। दूसरे शेर के ऊला मिसरा के अन्त में ‘‘रहे’’ शब्द आता है और ‘‘रहे’’ शब्द के अन्त का स्वर ‘‘ए’’ ‘‘मुझे’’ रदीफ़ के अन्त के स्वर ’’ए‘‘ मिल रहा है अर्थात दोनों शब्द ‘‘रहे’’ और ‘‘मुझे’’ का अन्त समस्वर से है अतः यह दोष है और यह तक़ाबुले रदीफ़ दोष के अन्तर्गत आता है। श्
ग़ज़ल कहना बहुत सरल नहीं है। ग़ज़ल के येे नियम स्थूल नियम हैं। इसके अतिरिक्त भी ग़ज़ल में बहुत बारीकियाँ हैं। अच्छे अच्छे उस्ताद शायरों से भी चूक हो जाती है। ग़ज़ल सजगता के साथ नियमों का पालन करते हुये कहना चाहिये।
राम अवध विष्वकर्मा
ए-38 सूर्यनगर शब्द प्रताप आश्रम
ग्वालियर - 474012
मो 09479328400
07974553370…
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