ये परदें
हर रौशनी के अंदर
एक घना अन्धकार रेंगता है
मौत सिसक - सिसक कर
रोटी है अँधेरे कुएँ में
अँधेरे के डर से
लोगो ने परदें नहीं उठाये
ज़िंदगी वैसे भी
खुल कर सांस ले नहीं पाती
बिलकुल बेहतर नहीं है
मौत का इस तरह
घुट घुट कर मरना
मैं अब फाड़ ही दूँगा
ये परदें
सूरज का मारना
ज़रूरी बन पड़ा है
एक स्वछन्द अन्धकार के लिए।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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