Friday, January 17, 2025

शहर और जंगल - भेड़िया और कलाकार

 भेड़िया और कलाकार 


जब महक उठता है 

फूलों की गंध - सा 

मेरे अंदर का कलाकार 

अपनी बाँहों में समेटने को शादमानियाँ 

भूली बिसरी तमाम कहानियाँ 

बिखर ही जाता है मन 

झरने - सा सूखी नदियों पर 

पंछी - सा उड़ ही जाता है मन 

दूर क्षितिज को छूने की चाह में 

पर कौन जानता है 

बबूल के किस पेड़ की 

टूटी शाख पर 

जा कर अटकेगा मन ,

कौन जाने कब 

मेरे अंदर का भेड़िया 

दबा दे 

मेरे कलाकार के गले की नसें 

और नोच डाले 

 गुलाब की पंखुशियाँ  

अपने नुकीले नाख़ूनों से  

कौन जाने कब 

बिद्ध हो जाये उड़ान ,

देर तक अपनी आँख में 

आकाश को समेटने की कोशिश में 

टपक ही जाता है 

जब एक क़तरा आँसू  

जब घुल ही जाते हैं 

कलाकार की आँख के सब रंग 

तब रह जाता है शेष क्या ,

लेकिन समझता है सब 

मेरे अंदर का कलाकार 

रखता है 

रंग , पानी , आँसू की पहचान 

मर कर भी नहीं मरता 

उसकी हथेली पर 

फिर उग आते हैं गुलाब के फूल 

फिर बह निकलता है 

ठहरा हुआ दरिया 

फिर  सिमट जाती है 

उसके पहलू  में उदास शाम 

और वह सर झुका 

निकलता रहता है 

भेड़िये की हथेली में घुपे 

काँच के टुकड़े 

और एक बार फिर 

अंकित कर जाता है 

मेरे हृदय पर अपना नाम। 


No comments:

Post a Comment