तोहफ़ा ...
लानत है ऐसे शाइर पे
जो महबूब की सालगिरह पर
प्रेम गीत न लिख सके
इश्क़ पे ग़ज़ल न कह सके
चाँदी के तारो से
कोई नज़्म न बुन सके
लानत है ..लानत हैं ऐसे शाइर पे
मैं क्या करूँ
हर तरफ़ उदासी तारी है
ग़मों की कश्ती में ये ज़िंदगी गुज़ारी है
डूबते सूरज की किरनों ने
रूह में करा बसेरा हैं
दूर बहुत अभी सवेरा हैं
माना ये ज़िंदगी बहुत रंगीन हैं
लेकिन मेरा इश्क़ मायूस और ग़मगीन है
ये सब तुम्हारे बहाने
इश्क़ के ग़मगीन तराने
किसी और को सुनाना
सितारों से सजा तुम्हारा महबूब
है ग़ज़ल सा चेहरा जिसका
हर शय में है मंज़र जिसका
आँखे जिसकी झील से गहरी
ज़ुल्फ़े उसकी काली बदरी
भौंहे जिसकी कमान सी हो
गर्दन जिसकी सुराही सी हो
जिसकी रूह की रौशनी से
खिल जाये अँधेरी रात भी
जिसके होंटो पे खिल जाए
दबी दबी सी कोई बात भी
फूल भी जिससे शरमाए
कलियों का मन ललचाए
लब जिसके पंखुरी बन जाए
वो दिल्ली वाला महबूब सखी
कोई और नहीं ..कोई और नहीं
इस काइनात का साक़ी है
जिसकी सालगिरह है आज
तोहफ़े में कुछ देना है
कोई प्रेम गीत या नज़्म ,
महबूब के नाम अभी यारो
ग़ज़ल कहना बाक़ी है,
लानत है ऐसे शाइर पे ...
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