इस मन के सूने आँगन में
कब आओगे प्राण प्रिय
रीत गयी चंदा की किरणें , बुझने लगे सितारे भी
दरिया की बेबस लहरों से , मिलते नहीं किनारे भी
पतझड़ भी अब रूठ गया है , रूठी यहाँ बहारें भी
इन दर्दीले गीतों को फिर , कब गाओगे प्राण प्रिय
दिल की नगरी उजड़ गयी है रूठी अब तन्हाई भी
ग़म में डूबे नग़मे मेरे , गूँगी है शहनाई भी
राख़ हुआ चन्दन मन मेरा ,धुआँ बनी परछाई भी
बंजर मन में ख़ुश्बू बन कर , कब छाओगे प्राण प्रिय
शाम ढली डूबा सूरज भी , नागिन सी डसती रतियाँ
पनघट भी अब छूट गया है , छूट गयी सगरी सखियाँ
तारे गिनते रात कटी हैं , बीत गयी कितनी सदियाँ
किरनों का सतरंगी रथ तुम , कब लाओगे प्राण प्रिय
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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