प्याऊ पानी और ओक
उस ज़माने में नहीं था
मिनरल वॉटर की बोतलों का चलन
और पुरानी दिल्ली की गलियों में
जगह जगह हुआ करती थीं प्याऊ
जोकि राह चलते मुसाफ़िरों की
बुझाती थी प्यास ,
प्याऊं में बड़े बड़े मिट्टी के घड़े
पीतल या काँसे की कूंडों में
भरा रहता था पानी
हर प्याऊ में मिलती थी कोई
बूढ़ी अम्मा या नानी
काँसे या पीतल की लुटिया से
राह चलते मुसाफ़िरों को पिलाती पानी
लोग ओक लगाकर पीते पानी
और अपनी ख़ुशी से
अपनी अपनी श्रद्धानुसार
१,२ ,३,५ ,या १० पैसे के सिक्के
उस प्याऊ पर रख देते
तो कोई कुछ भी नहीं देता
और पानी पीकर आगे बढ़ जाता
पिया ख़ुद मैंने सैकड़ों बार प्याऊ का पानी
कटरा गोकुलशाह के नुक्कड़ पर बनी प्याऊ
आज भी है ज़ेहन में ताज़ा
पानी पिलाने वाली अम्मा का चेहरा
नज़र में धुंधला धुंधला
लेकिन कभी मिटा नहीं ,
घर घर में RO और वाटर फ़िल्टर मिलते
लेकिन प्याऊ से पानी पीने का वो लुत्फ़ अब कहाँ
वो अम्मा , वो नानी वाला जहाँ अब कहाँ
वो अम्मा से राम राम , वो नानी से श्याम श्याम
पिया ज़िंदगी में महंगे से महंगा पानी
लेकिन उस पानी जैसा ज़ाइका अब कहाँ ?
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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