Monday, May 15, 2023

वसंत का ठहाका - लंगड़े घोड़े की टूटी नाल

 



लंगड़े घोड़े की टूटी नाल 


धीरे धीरे एक कविता 

मेरे भीतर रीत गयी 

रीत गया सन्नाटा भी 

और ज़िंदा ज़ख़्म की रौशनी 

पसर गयी मेरी आत्मा में ,  

इस रौशनी में मुझे 

दिखाई पड़ते हैं गुज़रे साल 

एक माँ के पैरों की जन्नत 

एक पिता का अनंत आकाश 

एक भूला बिसरा मधुपाश , 

भागती ज़िंदगी की 

बेतरतीब सड़क पर 

एक लंगड़े घोड़े की टूटी नाल, 

इस रौशनी में मुझे 

दिखाई पड़ते हैं गुज़रे साल। 


- इन्दुकांत आंगिरस 


  

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