लंगड़े घोड़े की टूटी नाल
धीरे धीरे एक कविता
मेरे भीतर रीत गयी
रीत गया सन्नाटा भी
और ज़िंदा ज़ख़्म की रौशनी
पसर गयी मेरी आत्मा में ,
इस रौशनी में मुझे
दिखाई पड़ते हैं गुज़रे साल
एक माँ के पैरों की जन्नत
एक पिता का अनंत आकाश
एक भूला बिसरा मधुपाश ,
भागती ज़िंदगी की
बेतरतीब सड़क पर
एक लंगड़े घोड़े की टूटी नाल,
इस रौशनी में मुझे
दिखाई पड़ते हैं गुज़रे साल।
- इन्दुकांत आंगिरस
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