तंदूरी रोटी
दिल्ली की कड़ाकेदार ठण्ड
या फिर भीषण गर्मी
दोनों ही में
तंदूरी रोटी खाने का
लुत्फ़ ही कुछ और है
असल में खाने से भी ज़्यादा
तंदूरी रोटियाँ बनवाने या
सिकवाने का मज़ा है दोगुना
उस ज़माने में होते थे लगभग
दिल्ली की सभी सम्भ्रांत कॉलोनियों में
ज़मीनी तंदूर यानी
ज़मीन के अंदर बने मिटटी वाले तंदूर
घर से आटा ले जाना
तंदूर वाले को रोटियों की गिनती बता
इन्तिज़ार करना
सर्दियों में तंदूर की तपिश से
ख़ुद को गरमाना
दूसरे ग्राहकों के साथ बतियाना
किसी से नज़र चुराना
किसी पर मुस्कुराना
फिर गर्म गर्म रोटियाँ ले कर
घर को लौट जाना
एक साथ बैठ कर
भोजन करना
उस ज़माने में नहीं थी
आज जैसी भाग - दौड़
और न ही थे मोबाइल फ़ोन
भोजन के बाद थोड़ा गुड़ या गज़क खाना
और ओढ़ कर रजाई सो जाना।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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