कविता - रिक्शा
शायद अप्रैल का था महीना
अपनी माँ के साथ रिक्शा में बैठ
जा रहा था बाज़ार सीताराम
पुरानी दिल्ली स्टेशन से
फतेहपुरी मस्जिद के बगल से
लाल कुआँ से गुज़रते हुए
अचानक रिक्शा वाले ने मारा था ब्रेक
और माँ मेरी उछल कर गिर पड़ी थी
सड़क पर
ख़ुद को भी संभाला मुश्किल से
उठाया था मैंने उन्हें झटपट
और बरस पड़ा था रिक्शा वाले पर
माँ भी ग़ुस्से से तमतमा गयी थी
राहगीरों ने डांटा था कस कर
रिक्शा वाले को
नहीं निकला था ख़ून
लेकिन माँ के सर पर
उभर गया था एक गोला
जिसको बैठने में लगे थे
कई हफ़्ते
तभी से सीख गया था
मैं ठीक से रिक्शा में बैठना।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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