समीक्षा
" और कैसी रही सम्पादक जी से मुलाक़ात ?" मैंने अपने साहित्यिक मित्र से पूछा जो एक दैनिक अख़बार के मुख्य सम्पादक से मिल कर अभी अभी घर लौटे थे।
" बहुत बढ़िया यार , अख़बार ने मुझे ग़ज़ल समीक्षक के रूप में नियुक्त किया है "। मित्र ने गर्व से बताया।
" बधाई स्वीकारे इस उपलब्धि के लिए "- मैंने उन्हें बधाई देते हुए कहा।
" शुक्रिया दोस्त , अब तुम जल्दी से मेरे ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा लिख दो और मैं तुम्हारी पुस्तकों की समीक्षा लिखता हूँ " मित्र ने उत्साहित होकर कहा।
" लेकिन मैं तो कोई समीक्षक नहीं , मुझे समीक्षा लिखनी भी नहीं आती दोस्त " मैंने मायूसी से कहा।
" अरे , कोई बात नहीं , तुम्हारी तरफ़ से मैं ही लिख दूँगा , नीचे तुम्हारा नाम डाल दूँगा " मित्र ने तपाक से जवाब दिया।
अपने समीक्षक मित्र के इस जोड़ - तोड़ के आगे मैं निरुत्तर हो गया था।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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