लघुकथा - दो गज़ ज़मीन
शमशान ने कब्रिस्तान से कहा - " तुम्हारी मौज है भाई , हर मौत के साथ तुम्हारी प्रॉपर्टी बढ़ती जाती है। २ गज मुर्दे की ज़मीन और २ गज का फ़ासला। यहाँ रात - दिन जलना पड़ता है , एक के बाद एक चिता , पिछली राख ठंडी भी नहीं होती कि नयी चिता तैयार। ज़मीन उतनी की उतनी। "
- " दूर के ढोल सबको सुहावने दिखाई देते हैं " , - कब्रिस्तान ने शमशान से कहा। " तुम्हें क्या मालूम मुझे कितनी मर्मान्तक पीड़ा से गुज़ारना पड़ता है। सारी ज़िंदगी मुझे पैरो से रोंदने वाला ये इंसान मरने के बाद भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता। मुझे उसके कंकाल के साथ सदियों तक रहना पड़ता है , एक ऐसी बंद मज़ार में , जहाँ से हवा जा नहीं सकती , जहाँ हवा आ नहीं सकती। तुम तो बहुत ख़ुशनसीब हो , कम से कम हवा और रौशनी तो पाते हो और हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा देते हो। "
- " हाँ , ये बात तो सच है , मैं हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा देता हूँ "- शमशान ने मुस्कुराते हुए कहा और नई चिता का धुआँ आकाश में उड़ने लगा ।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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