लघुकथा - जन्नत की ट्रैन
- " भाईसाहब , ये ट्रैन कहाँ जा रही है ? "
- " आपको कहाँ जाना हैं ? "
- " मुझे ..मुझे ..मुझे जन्नत जाना है। "
- " जन्नत की ट्रैन तो अगले इतवार को जाएगी , ये ट्रैन तो दोज़ख जा रही है । "
- " अच्छा , अगला इतवार ...तब तक तो बहुत देर हो जाएगी। "
- " तो इसी में बैठ जाओ , वहाँ से ले लेना जन्नत की ट्रैन। "
- " हाँ , यही ठीक रहेगा " - कहता हुए मुसाफ़िर ने ट्रैन में क़दम रखा और ट्रैन चल पड़ी गोया उसी का इन्तिज़ार कर रही थी।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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