Friday, May 26, 2023

वसंत का ठहाका - कविता की एक शाम

 कविता की एक शाम 


कविता की ऊँगली पकड़ कर 

शाम को ही घूमना अच्छा लगता है 

सुबह सुबह की कविता 

नीरस और बोझिल होती है 

इसीलिए मैं शाम ही को 

लिखता हूँ , सुनता हूँ , सुनाता हूँ कविताएँ


कविता की एक शाम 

कई बोझिल दिनों पर भारी होती है 

रात की थकी माँदी कविताएँ 

दोपहर में अक्सर सोती हैं 

कविताएँ बेपरवाह होती हैं 


कविताएँ इसलिए भी 

शाम की चादर ओढ़ती हैं 

क्योंकि उन्हें बतियाना होता है

जवान या  बूढ़े चाँद से 

ज़मीं से , आसमान से 


शाम की तन्हाई के साथ 

खुलते है कविताओं के बंध

नूपुरों के संगीत के साथ 

खिलते हैं कविताओं के छंद 


शाम के ढलते ढलते 

कविताएँ बन जाती हैं आवारा 

शहर की जगमगाती सड़कों पर 

एक शाइर मजाज़ - सा फिरता है मारा मारा 

कविताएँ करती हैं घुसपैठ 

ग़रीबों की बस्ती में 

और लगाती हैं मरहम 

उनके खुले ज़ख़्मों पर  

इसीलिए कविताएँ उनकी नहीं होती 

जो उन्हें लिखते हैं 

अपितु होती हैं उन सब की 

जो जीते हैं उन कविताओं को अपनी साँसों में 


शाम की तन्हाई में 

देर तक रात के साथ साथ बीतती हैं कविताएँ 

मैं भी बीतता हूँ उनके साथ साथ 

इसीलिए मैं शाम को ही 

सुनता हूँ , पढता हूँ , सुनाता हूँ 

लिखता हूँ कविताएँ। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


 



 

No comments:

Post a Comment