Friday, May 26, 2023

वसंत का ठहाका - पाबंदी

 पाबंदी 


कुछ लोग समय के बहुत पाबन्द होते हैं

समय से हँसते हैं , समय से रोते हैं 


सही वक़्त पर उठना 

सही वक़्त पर खाना 

पखाना , नहाना 


सही वक़्त पर मुस्कुराना 

नक्षत्रों की तरह गतिमान 

इनकी अपनी अलग पहचान 


सूरज जल्दी उगे या देर से डूबे 

बारिश वक़्त पर बरसे , न बरसे 

इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता 

अपने दिन और रात 

अपनी सुविधा से हैं बिताते 

परदों के उस पार के रंग 

इनकी आँखों में उतर नहीं पाते 

कभी समय इन्हें गाता 

कभी ये समय को गाते 

ये लोग बांधते हैं समय को 

और समय बांधता हैं इनको 

अपनी बंद मुट्ठी में 

करते हैं क़ैद वक़्त को 

कितने ही वसंत रेत की मानिंद 

फिसल जाते हैं 

उन बंद मुट्ठियों से 

वक़्त पर पहुँचना

एक अच्छी आदत हो सकती है

लेकिन फ़ितरत नहीं  

और आदते अक्सर होती है आफ़ते 

आफ़ते झेल  कर सिर्फ दीवाने हँसते है 

बाक़ी तो वक़्त की नब्ज पकड़ कर 

पहले लेते हैं अनुमति 

फिर सोच समझ कर हँसते हैं 


वक़्त पर बजती हैं 

मंदिर में  घंटियाँ 

वक़्त पर उठती हैं 

मस्जिद से अज़ान

ख़ुदा भी पाबन्द हैं वक़्त का  

या यूँ समझिये 

बन्दों ने बना दिया है उसे पाबन्द 

आरती , अज़ान के समय 

ईश्वर , ख़ुदा को उठना ही पड़ता है

कुछ गवैयों का बेसुरा राग 

सुनना ही पड़ता है। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


No comments:

Post a Comment