आख़िरी सीढ़ी
अपनी कमर पे स्कूल बैग लटकाये
पानी की बोतल हाथ में घुमाये
कोई गीत गुनगुनाते हुए
चढ़ता जा रहा था लकड़ी का ज़ीना
बस आख़िरी सीढ़ी थी बाक़ी
कि तभी मेरा पाँव फिसला
रपट गया लकड़ी के ज़ीने से
पत्थर के ज़ीने पे
फट गया था मेरा सर
उसके बाद नहीं कुछ याद
पर भूला नहीं हूँ आज भी -
हाथी दांत वाले नाना त्रिलोकीनाथ
मुझे ले गए थे उठा के अस्पताल
सर में लगे थे कई टाँके
नाना की सफ़ेद कमीज़
मेरे ख़ून से हो गयी थी पूरी लाल,
सर में आज भी है उस ज़ख़्म का निशान
जब कभी फेरता हूँ हाथ सर में
तो ताज़ा हो जाता है ज़ेहन में
नाना त्रिलोकीनाथ का चेहरा
और मेरे ख़ून में डूबी उनकी सफ़ेद कमीज़।
कविता - इन्दुकांत आंगिरस
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