Thursday, May 25, 2023

वसंत का ठहाका - दानी

 दानी 


मैं अक्सर अपने पुराने कपडे और जूते 

दे देता हूँ उन लोगो को 

जिनके पास नहीं होते कपडे और जूते 

जो बीनते हैं कूड़ा 

जिनके बदन से उठती है दुर्गन्ध 

मैं अक्सर उन्हीं टूटे - फूटे लोगो को 

दे देता हूँ अपने फटे कपडे और जूते 

फिर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता 

वो उन्हें पहने या उन पर मूते


जिस बासी खाने को 

मैं ख़ुद खा नहीं पाता

ढूँढता हूँ   उसके लिए कोई बासी पेट 

कोई लावारिस बासी पेट 

कुछ इस तरह

 मैं अन्नदान के धर्म को निभाता हूँ 

कुछ इस तरह मैं दानी कहलाता हूँ 

अपनी क़ीमती चीज़ों को रखता हूँ सहेज कर 

लगाता हूँ ताला एक बक्से में बंद कर 

गुज़र जाते हैं साल - दर - साल 

बक्से की चीज़े भी बन जाती हैं बासी 

लेकिन मैं फिर भी 

लगाए रखता हूँ उन्हें अपने गले 

फिर चाहे दिल के फफोले जले

मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता 

मेरी आत्मा को 

कोई कितना भी मले। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस  

  

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