Tuesday, May 23, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - प्रीत का परिंदा

 प्रीत का परिंदा 


दीवार के उस तरफ़ से 

छन कर आती हैं तुम्हारी साँसे 

बन जाती हैं मेरी आँखें पारदर्शी 

दीवार के उस पार मुझे 

सब दिखने लगता है 

प्रीत का रस 

जिगर से रिसने लगता है ,

तुम अलसाई सी 

अपनी बॉलकनी  मैं बैठी हो 

दूर क्षितिज को 

अपनी आँखों में भरती हो 

शाम का सिन्दूरी रंग 

तुम्हारी आँखों में समा जाता है 

प्रीत का परिंदा लौट लौट आता है। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


 

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