Tuesday, May 2, 2023

लघुकथा - एक दो बूँद

 

लघुकथा - एक दो बूँद


उस शाम न चाहते हुए भी मुझे उनकी टोली में शामिल होना पड़ा।  यूँ तो वे सब शरीफ़ इंसान थे सिवाय इसके कि सभी  दारूबाज़ थे।  वैसे तो अपनी नई नौकरी की ख़ुशी में मैंने सबको मिठाई खिला दी थी लेकिन शराबी टोली की दावत बिना दारू के पूरी नहीं हो सकती थी। 

ख़ैर , दारू का दौर शुरू हुआ।  एक साहब ने बोतल खोली और नाप तोल कर सबके लिए पैग बना कर बोले - 


"देख लो भाई लोगो , सब बराबर है ना ?"


टोली के दूसरे साथी  ने गिद्ध  सी  नज़र से अपने पैग  का मुआयना  किया और बोला   -


" कोई बात नहीं यार , एक दो बूँद इधर उधर हो भी गई तो उसका हिसाब कल कर लेंगे। " 


उसके इस जुमले पर बाक़ी लोग मुस्कुराएँ लेकिन उनके इस हिसाब - किताब पर मैं चाह कर भी मुस्कुरा नहीं सका। 



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस 



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