Monday, May 29, 2023

वसंत का ठहाका - कहानी लिखना

 कहानी लिखना 


बहुत दिनों से दिल उदास नहीं 

ग़म है यही कि ग़म पास नहीं 

बहुत दिनों से नहीं लिखी कोई कविता 

बहुत दिनों से मन नहीं रीता 

हर बड़े कवि की कसौटी है लिखना कहानी 

यही सोच कर बैठा मैं लिखने कहानी 

अपने आस पास नज़र दौड़ाई 

पात्र , जज़्बात , बात , मुलाक़ात 

मैंने सबको किया  इकठ्ठा 

फिर कहानी की चिलम का मारा सट्टा

मुझे कहानी लिखना 

एक बाज़ीगर के खेल की तरह लगा 

जो खेल की शुरआत में 

अपनी जादू की पिटारी से 

निकालता है नए नए खिलोने  

अधकचरे आइनो के टुकड़े औने-पौने 

फिर उन आइनो के टुकड़ो को जोड़ कर 

बनाना फिर से एक नया आइना 

यक़ीनन मुश्किल है काम 

गर बन भी जाये आइना 

उसमे सिर्फ़ टूटे अक्स नज़र आये 

बहुत काम ऐसे फ़नकार हैं

जो उन टूटे आइनो से भी 

एक बुत बना जाते हैं 

बहुत गहरे दिल में उतर जाते हैं। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Sunday, May 28, 2023

लघुकथा - मुहब्बत ज़िंदाबाद


मुहब्बत  ज़िंदाबाद



 - " अच्छा बताओ , तुम मुझे कितना प्यार करते हो ? " माशूक़ ने अपने आशिक़ से पूछा। 


- " उतना ही जितना ये आसमान इस धरती से करता है " आशिक़ ने जवाब दिया। 


- ' सच ! मतलब मैं धरती हूँ और तुम आसमान।फिर तो मुझे तुम अपनी बाँहों में   समेट लो  ' माशूक़ ने तड़प कर कहा। 


- 'ये मुमकिन तो नहीं फिर भी  उफ़ुक़ बना कर अपनी मुहब्बत  का भ्रम तो रखना ही पड़ेगा। ' आशिक़ ने मायूसी से कहा। 


- ' मतलब नज़र का फ़रेब.....' माशूक़ ने पूछा। 


- ' हाँ , दुनिया में मुहब्बत  को ज़िंदा रखने के लिए नज़रों का ये फ़रेब ज़रूरी हैं।' आशिक़ ने जवाब दिया। 


" ठीक है , अगर मुहब्बत की है तो फ़रेब भी खाने पड़ेंगे  "  कह कर  माशूक़ ने आशिक के गले में बाहें डाल दी और दोनों मिल कर गुनगुनाने लगें - - मुहब्बत  ज़िंदाबाद ... ये मुहब्बत  ज़िंदाबाद 




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस    

Saturday, May 27, 2023

लघुकथा - आइस - पाइस

 लघुकथा : आइस - पाइस 

मालूम नहीं था कि बचपन का आइस - पाइस यानी छुपम - छुपाई  का खेल कभी व्ट्सअप्प पर भी खेलना पड़ेगा और उसमे होंगे सिर्फ़ दो खिलाड़ी, यानी मैं और मेरी प्रेरणा। कविता लिखने के लिए ज़रूरी है प्रेरणाएँ  लेकिन प्रेरणाएँ  इस रहस्य  को नहीं समझती और कुछ समझ कर भी अनजान बन जाती हैं। 

ख़ैर , मेरी ताज़ा प्रेरणा मेरे साथ  आइस - पाइस का खेल खेलने के लिए तैयार हो गयी।  व्हाट्सप्प पर खेल शुरू हो गया। मुझे लगा ये खेल तो मैं बचपन से खेलता आ रहा हूँ तो आराम से जीत जाऊँगा। लेकिन व्ट्सअप्प के दांव पेंच में मेरा हाथ तंग है। मैं आधी आधी रात जाग कर प्रेरणा को  व्ट्सअप्प पर पकड़ना चाहता हूँ लेकिन वो मेरे हाथ नहीं आती।  व्ट्सअप्प के हर मैसेज की आहट पर धड़कता  है दिल मेरा लेकिन  मेरे उबासी लेते लेते वो मुझे छू के भाग जाती है और मैं हैरान ...परेशान ....यक़ीन मानिये बहुत हैरान हो जाता हूँ अपनी प्रेरणा की इन कलाबाज़ियों पर।  लेकिन अब  मैं इस बात से बिलकुल हैरान  नहीं हूँ कि  पिछले कुछ दिनों में मैंने  ताज़ा प्रेम कविताएँ क्यों नहीं लिखी ?


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Friday, May 26, 2023

वसंत का ठहाका - पाबंदी

 पाबंदी 


कुछ लोग समय के बहुत पाबन्द होते हैं

समय से हँसते हैं , समय से रोते हैं 


सही वक़्त पर उठना 

सही वक़्त पर खाना 

पखाना , नहाना 


सही वक़्त पर मुस्कुराना 

नक्षत्रों की तरह गतिमान 

इनकी अपनी अलग पहचान 


सूरज जल्दी उगे या देर से डूबे 

बारिश वक़्त पर बरसे , न बरसे 

इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता 

अपने दिन और रात 

अपनी सुविधा से हैं बिताते 

परदों के उस पार के रंग 

इनकी आँखों में उतर नहीं पाते 

कभी समय इन्हें गाता 

कभी ये समय को गाते 

ये लोग बांधते हैं समय को 

और समय बांधता हैं इनको 

अपनी बंद मुट्ठी में 

करते हैं क़ैद वक़्त को 

कितने ही वसंत रेत की मानिंद 

फिसल जाते हैं 

उन बंद मुट्ठियों से 

वक़्त पर पहुँचना

एक अच्छी आदत हो सकती है

लेकिन फ़ितरत नहीं  

और आदते अक्सर होती है आफ़ते 

आफ़ते झेल  कर सिर्फ दीवाने हँसते है 

बाक़ी तो वक़्त की नब्ज पकड़ कर 

पहले लेते हैं अनुमति 

फिर सोच समझ कर हँसते हैं 


वक़्त पर बजती हैं 

मंदिर में  घंटियाँ 

वक़्त पर उठती हैं 

मस्जिद से अज़ान

ख़ुदा भी पाबन्द हैं वक़्त का  

या यूँ समझिये 

बन्दों ने बना दिया है उसे पाबन्द 

आरती , अज़ान के समय 

ईश्वर , ख़ुदा को उठना ही पड़ता है

कुछ गवैयों का बेसुरा राग 

सुनना ही पड़ता है। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


वसंत का ठहाका - कविता की एक शाम

 कविता की एक शाम 


कविता की ऊँगली पकड़ कर 

शाम को ही घूमना अच्छा लगता है 

सुबह सुबह की कविता 

नीरस और बोझिल होती है 

इसीलिए मैं शाम ही को 

लिखता हूँ , सुनता हूँ , सुनाता हूँ कविताएँ


कविता की एक शाम 

कई बोझिल दिनों पर भारी होती है 

रात की थकी माँदी कविताएँ 

दोपहर में अक्सर सोती हैं 

कविताएँ बेपरवाह होती हैं 


कविताएँ इसलिए भी 

शाम की चादर ओढ़ती हैं 

क्योंकि उन्हें बतियाना होता है

जवान या  बूढ़े चाँद से 

ज़मीं से , आसमान से 


शाम की तन्हाई के साथ 

खुलते है कविताओं के बंध

नूपुरों के संगीत के साथ 

खिलते हैं कविताओं के छंद 


शाम के ढलते ढलते 

कविताएँ बन जाती हैं आवारा 

शहर की जगमगाती सड़कों पर 

एक शाइर मजाज़ - सा फिरता है मारा मारा 

कविताएँ करती हैं घुसपैठ 

ग़रीबों की बस्ती में 

और लगाती हैं मरहम 

उनके खुले ज़ख़्मों पर  

इसीलिए कविताएँ उनकी नहीं होती 

जो उन्हें लिखते हैं 

अपितु होती हैं उन सब की 

जो जीते हैं उन कविताओं को अपनी साँसों में 


शाम की तन्हाई में 

देर तक रात के साथ साथ बीतती हैं कविताएँ 

मैं भी बीतता हूँ उनके साथ साथ 

इसीलिए मैं शाम को ही 

सुनता हूँ , पढता हूँ , सुनाता हूँ 

लिखता हूँ कविताएँ। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


 



 

Thursday, May 25, 2023

वसंत का ठहाका - दानी

 दानी 


मैं अक्सर अपने पुराने कपडे और जूते 

दे देता हूँ उन लोगो को 

जिनके पास नहीं होते कपडे और जूते 

जो बीनते हैं कूड़ा 

जिनके बदन से उठती है दुर्गन्ध 

मैं अक्सर उन्हीं टूटे - फूटे लोगो को 

दे देता हूँ अपने फटे कपडे और जूते 

फिर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता 

वो उन्हें पहने या उन पर मूते


जिस बासी खाने को 

मैं ख़ुद खा नहीं पाता

ढूँढता हूँ   उसके लिए कोई बासी पेट 

कोई लावारिस बासी पेट 

कुछ इस तरह

 मैं अन्नदान के धर्म को निभाता हूँ 

कुछ इस तरह मैं दानी कहलाता हूँ 

अपनी क़ीमती चीज़ों को रखता हूँ सहेज कर 

लगाता हूँ ताला एक बक्से में बंद कर 

गुज़र जाते हैं साल - दर - साल 

बक्से की चीज़े भी बन जाती हैं बासी 

लेकिन मैं फिर भी 

लगाए रखता हूँ उन्हें अपने गले 

फिर चाहे दिल के फफोले जले

मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता 

मेरी आत्मा को 

कोई कितना भी मले। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस  

  

लघुकथा - समीक्षा

 समीक्षा 


" और कैसी रही सम्पादक जी से मुलाक़ात ?" मैंने अपने साहित्यिक मित्र से पूछा जो एक दैनिक अख़बार के मुख्य सम्पादक से मिल कर अभी अभी घर लौटे थे।  

" बहुत बढ़िया यार , अख़बार ने मुझे ग़ज़ल समीक्षक के रूप में नियुक्त किया है "। मित्र ने गर्व से बताया। 


"  बधाई स्वीकारे इस उपलब्धि के लिए "- मैंने उन्हें बधाई देते हुए कहा। 


" शुक्रिया दोस्त , अब तुम जल्दी से मेरे ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा लिख दो और मैं तुम्हारी पुस्तकों की समीक्षा लिखता हूँ " मित्र ने उत्साहित होकर कहा। 


" लेकिन मैं तो कोई समीक्षक नहीं , मुझे समीक्षा लिखनी भी नहीं आती दोस्त " मैंने मायूसी से कहा। 


" अरे , कोई बात नहीं , तुम्हारी तरफ़ से मैं ही लिख दूँगा , नीचे तुम्हारा नाम डाल दूँगा " मित्र ने तपाक से जवाब दिया। 


अपने समीक्षक मित्र के इस जोड़ - तोड़ के आगे मैं निरुत्तर हो गया था।   



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Wednesday, May 24, 2023

लघुकथा - नोटबंदी

 नोटबंदी 


कल २०००/ के नोट बदलवाने जब बैंक गया तो अजीब नज़ारा देखा।  नोट बदलवाने वालो की लम्बी लाइन और मिली जुली आवाज़े - 

अरे भाई , पहले १०००/ और ५००/ के नोट बंद कर २०००/ का नोट ज़ारी किया था , और अब २०००/ का नोट बंद। 

- देखते रहो , ५००/ और १००/ के नोट भी बंद होंगे 

- इस तरह हम कब तक नोट बदलते रहेंगे ?

तभी पीछे से किसी ने लम्बा जुमला फेंका -

भाइयों और बहनों , ये बार बार नोट बदलने से अच्छा एक बार प्रधानमंत्री ही बदल कर देख लेते हैं। 

यह जुमला सुन बैंक में मौजूद  सभी लोगो ने ज़ोर से ठहाका लगाया।  उनके ठहाके इतने बढे ...इतने बढे ....कि २०००/ के नोट हवा में उड़ने लगें। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

वसंत का ठहाका - नया साल

 नया साल 


ओ नए साल के वसंत ! 

बढ़ कर मेरा हाथ थाम ले 

मैं गुज़रे साल का पतझड़ हूँ 

मेरे मुरझाये फूलों की गंध से ही 

खिलती हैं तुम्हारी कलियाँ 

और तुम्हारे फूल 

बिखेरते हैं ख़ुश्बू

आने वाली सदियों के नाम ,

सूरज की पहली  किरण के साथ 

रौशनी का पर्व मनाते 

ओ नए साल के वसंत !

बढ़ कर मेरा हाथ थाम ले 

मैं गुज़रे साल का पतझड़ हूँ 

मेरे भीतर से ही फूटती है 

तुम्हारे वसंत की यह रौशनी 

जिसकी किरणों में स्नान कर 

हम मिलजुल कर रचेंगे महारास 

जिसे देखने ये ब्रह्माण्ड भी थम जायेगा 

रौशनी का हर क़तरा प्रेम के गीत गायेगा 

ओ नए साल के वसंत ! 

बढ़ कर मेरा हाथ थाम ले 

मैं कब से प्रतीक्षारत हूँ 

तुम्हारे आगमन के लिए 

मेरी फैली हुई आतुर बाँहों में 

सदा के लिए क़ैद हो जाओ 

आने वाली सादिया भी गायेंगी

हमारे महामिलन का अनंत तराना 

याद है आज भी तेरा मुस्कुराना 

ओ नए साल के वसंत ! 

बढ़ कर मेरा हाथ थाम ले 

मैं गुज़रे साल का पतझड़ हूँ। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

  




Tuesday, May 23, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - कविता और दर्शन

 कविता और दर्शन 


हम लोग कविता से दर्शन पर आ गए 

और दर्शन होता है बोझिल 

उस में नहीं होता कविता का दिल 

उस में नहीं होती कविता की चुटकी 

उस में नहीं होती वसंत की ख़ुश्बू

माना दर्शन से मिलता है तत्व ज्ञान 

लेकिन मुझे तत्व ज्ञान नहीं ,अपितु 

वसंत की है दरकार 

इसीलिए नहीं छोड़ता मैं कविता का दामन 

क्योंकि कविता मेरी आत्मा का 

कभी न मुरझाने वाला वसंत है। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रेम - प्रसंग/ 2 - प्रीत का परिंदा

 प्रीत का परिंदा 


दीवार के उस तरफ़ से 

छन कर आती हैं तुम्हारी साँसे 

बन जाती हैं मेरी आँखें पारदर्शी 

दीवार के उस पार मुझे 

सब दिखने लगता है 

प्रीत का रस 

जिगर से रिसने लगता है ,

तुम अलसाई सी 

अपनी बॉलकनी  मैं बैठी हो 

दूर क्षितिज को 

अपनी आँखों में भरती हो 

शाम का सिन्दूरी रंग 

तुम्हारी आँखों में समा जाता है 

प्रीत का परिंदा लौट लौट आता है। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


 

Monday, May 22, 2023

लघुकथा - दो कामवालियों की गुफ़्तगू

  दो कामवालियों की गुफ़्तगू


शीला -  साहब लोग , तुझसे भी आधार  कार्ड माँगे हैं क्या ?


पूनम - हाँ , मुझसे भी माँगा है , सभी अपार्टमेंट वालों ने नया रूल बना दिया है , अगर इस महीने के आख़िर तक जमा नहीं किया तो अगले महीने से काम नहीं मिलेगा और मैंने सुना है हमारा पुलिस वेरिफिकेशन भी होगा। 


शीला -   क्यों , हम लोग कोई अपराधी है क्या ? अपराधी तो सरकार से  पकडे नहीं जाते बस  शरीफ़ आदमियों को परेशान  करने में लगी रहती है। मुझे नहीं करना इस अपार्टमेंट में काम। इनका भी आधार चेक होना चाहिए।  इनकी भी पुलिस वेरिफिकेशन होनी चाहिए। ये लोग बाहर  ही शरीफ़ बनते हैं , घर में सारे कुकर्म करते हैं - शीला बिफ़रते हुए बोली थी। 

 

पूनम - चल छोड़ ये सब , ये बता कल तेरे बेवड़े पति ने तुझे मारा तो नहीं ?


शीला - मारा तो कल भी था लेकिन ...


पूनम - लेकिन  क्या ?

 

शीला - लेकिन कल मारने के बाद बहुत प्यार भी किया उसने........


अच्छा  तो ये बात है ,  तभी मेरी घोड़ी आज हवा पे सवार है।  


दोनों सखिया खिलखिला के हँस पड़ी और उनके क़हक़हे देर तक आकाश में गूँजते रहे।  



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Sunday, May 21, 2023

गीत - कब आओगे प्राण प्रिय

 इस मन के सूने आँगन में

कब आओगे प्राण प्रिय 


रीत गयी चंदा की किरणें , बुझने लगे सितारे भी 

दरिया की बेबस लहरों से , मिलते नहीं किनारे भी 

पतझड़ भी अब रूठ गया है , रूठी यहाँ बहारें  भी 


इन दर्दीले गीतों को फिर  , कब  गाओगे प्राण प्रिय 


दिल की नगरी उजड़ गयी है  रूठी अब तन्हाई भी 

ग़म में डूबे  नग़मे मेरे ,  गूँगी है शहनाई  भी  

राख़ हुआ चन्दन मन  मेरा  ,धुआँ  बनी  परछाई भी 


बंजर मन में ख़ुश्बू बन कर  , कब छाओगे प्राण प्रिय 


शाम ढली डूबा सूरज भी , नागिन सी डसती  रतियाँ 

पनघट भी अब छूट गया है  , छूट गयी सगरी सखियाँ 

तारे गिनते रात कटी हैं , बीत गयी कितनी सदियाँ


किरनों का सतरंगी रथ तुम , कब लाओगे प्राण प्रिय 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस      

गीत - फूलों के अधरों से पूछो


फूलों के अधरों से पूछो



 फूलों के अधरों से पूछो

शबनम के क़तरों से पूछो 

दरिया की लहरों से पूछो 

यौवन के पहरों से पूछो 

पूछो बुलबुल की तानों से  

जवानी किसे  कहते है , किसे रवानी  कहते है 


मुस्काते झरनो से पूछो 

प्रेम भरे नग़मों से पूछो 

प्रीतम की क़समों से पूछो 

रजनी के सपनों से पूछो 

पूछो सजनी  की नज़रों से   

जवानी किसे  कहते है , किसे रवानी  कहते है


साँसों की सरगम से पूछो 

प्रीत भरी धड़कन से पूछो 

जन्मों के बंधन से पूछो 

रूहानी दरपन से पूछो 

बिरहन चकवी से भी पूछो 

जवानी किसे  कहते है , किसे रवानी  कहते है



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


(  जवानी उसे   कहते है , जिसे  रवानी  कहते है )



गीत - जन्म जन्म का साथ हमारा

 जन्म जन्म का साथ हमारा , अब न बिछड़ेंगे मिल कर 


तुम सपनों की रात सँवारो  , मैं पलकों पर दीप जलाऊँ

तुम सरगम का राग पुकारो , मैं अधरों पर गीत सजाऊँ 


तुम फूलों का बाग़ सजा लो , मैं कलियों का रास रचाऊँ

तुम यादों का पाल बना लो , मैं लहरों की नाव बनाऊँ

 

तुम बदरी के गीत सजाओ , मैं तारों का साज़ बजाऊँ  

तुम किरनों के पंख बना लो , मैं चाँदी  के फूल सजाऊँ 


तुम चंदन की सेज सजा लो , मैं साँसों का कफ़न बनाऊँ

तुम प्राणों का दीप जला लो , मैं बस धुआँ धुआँ बन जाऊँ



कवि - इन्दुकांत आंगिरस    

गीत - फूल बन जाते हैं

 फूल बन जाते हैं अंगार वहाँ

शूल कर जाते हैं श्रृंगार जहाँ 


रोज़ बिकती हैं बच्चों की मुस्कानें  

रोज़ मिटतीं  हैं रिश्तों की पहचानें  

लाज बिकती  है गहना बिकता  है 

आँख खुलते  ही सपना चुकता है 


चोर कहलाए पहरेदार यहाँ  

हाट में बिकते हैं  फ़नकार  यहाँ 


रोज़ जलते है शमा से परवाने 

रोज़ लुटते है क़िस्मत से दीवाने 

प्रीत झूटी है यौवन ढल जाता है 

आँख मूंदते  ही तन जल जाता है


कौन कर पाए फिर प्यार यहाँ 

प्रेम बन जाये व्यभिचार  जहाँ



कवि - इन्दुकांत आंगिरस    

Saturday, May 20, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - मोजिज़ा

 ये कैसा मो'जिज़ा है 

तू हज़ारों मील दूर  बैठा है 

लेकिन सुनता हूँ रूह में 

तेरी   सदा 

अपनी पलकों में तुम्हें क़ैद कर 

बदलता रहता  हूँ करवटें 

कितना दिलकश , दिलफ़रेब है मंज़र  

हिज्र की रातों में भी 

लूटता  हूँ मुहब्बत  का मज़ा 

इसी का नाम इश्क़ है क्या ?



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रेम प्रसंग - कितना भला लगता है

 कितना भला लगता है


पैर के अंगूठे से उनका ज़मीन का  कुरेदना 

कितना भला लगता है

मानो सम्पूर्ण लज्जा अंगूठे में सिमट गई है


उनकी पलकों का स्वतः उठ कर गिर जाना   

कितना भला लगता है

मानो युगों  की  प्रेम कहानी क्षण में कह गई है


उनका उँगलियों में बार बार पल्लू का लपेटना 

कितना भला लगता है

मानो हल्की हल्की बरसात हो कर थम गई है 


उनके  अधरों  का रह रह कर यूँ थरथराना 

कितना भला लगता हैं 

मानो पूनम की रात सूनेपन को भर गई है


इक मौन इशारे पर उसका वो नज़रे  झुकाना 

कितना भला लगता है

मानो समर्पण में अब कोई कमी ही नहीं हैं 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रेम प्रसंग - प्रीत पहले भी

  प्रीत पहले भी करता था मैं

आज  जैसा ना  रीता था  मैं 


गीत पहले भी लिखता था मैं 

आज जैसा ना बिकता था मैं 


ज़ख़्म  पहले भी सीता था मैं 

आज जैसा ना रिसता था मैं 


रंग पहले भी  भरता था मैं 

आज जैसा ना सस्ता  था मैं 


रोज़ पहले भी मरता था मैं 

आज जैसा ना मरता था मैं 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रेम प्रसंग - गुज़रे बरसो के


 गुज़रे बरसो के....



 गुज़रे बरसो के बीते कसाव कसमसाते हैं

गंध ही रह जाती हैं यहाँ फूल झड़ जाते हैं     


जब से सिलवटें नहीं पड़ी 

तब से उलझनें और बढ़ी 


बरसात में भी निगोड़े ये पाँव जल जाते हैं 


कल्पना को ही सहलाते रहे 

बस यूँ ही मन बहलाते रहे 


कामना से अपनी ही हम जब तब डर जाते हैं 


रात भर टिमटिमाया तारा 

दर्द   यूँ ही   समेटा सारा 


सुधियों के आँगन में जब दीप जल जाते हैं 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


गीत - जो आँगन की ...


 जो आँगन की .....


 जो आँगन की तुलसी के बिरवे में है 

वो स्नेह नहीं इन रंग - बिरंगे फूलों में 


जो सजनी के अधरों के मिलवे में है 

वो गंध नहीं इन रंग - बिरंगे फूलों में 


जो पत्नी के पाँवों के बिछवे में है 

वो प्रीत नहीं इन रंग बिरंगे फूलों में 


जो पत्नी के मिटटी के करवे में है

वो ताप नहीं इन रंग- बिरंगे फूलों में 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रेम प्रसंग - वासंती पुरवाई ने


 वासंती पुरवाई ने



 एक वसंत बाहर मेरे , एक वसंत भीतर है

एक अगन बाहर मेरे , एक अगन भीतर है


फूलों के फिर होंठ खुले 

नग़मों को भी  बोल मिले 

झरनों ने फिर गीत रचे 

सपनो के फिर दीप जले 

चित्रों में फिर रंग भरे 

वासंती पुरवाई ने ...


एक चुभन बाहर मेरे ,एक चुभन भीतर है



पहरों के फिर राज़ खुले 

अधरों को फिर साज़ मिले 

यादों के फिर दीप जले 

रह रह कर इक टीस उठे 

मधुर मिलन के गीत रचे 

वासंती पुरवाई ने ...


एक लगन बाहर मेरे , एक लगन भीतर है



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रेम प्रसंग - साँवरिया

 साँवरिया


साँवरिया ,, कब आएँगे साँवरिया 


रूठ गई पायल की रुनझुन 

सूख गया माथे का चन्दन 

रीत गयी अधरों की सरगम 

जीत गया आँसू  का क्रंदन 


उठती गिरती लहरों - सा मन 

लाज में डूबे पहरों -  सा मन  


रूठ गयी नैनों  से निंदिया  

छूट गयी माथे से बिंदिया 

लौट गए सब गाजे - बाजे

शेष बची काग़ज़ की चिंदिया 


बनते - मिटते सपनों  - सा मन 

भूले - बिसरे अपनों-  सा मन 


रूठ गए पाँवों से बिछवे 

सूख गए तुलसी के बिरवे 

आज ज़रा - सी ठेस लगी तो 

टूट गए मिटटी के करवे


जलते - बुझते दीपों -सा मन 

बिखरे बिखरे गीतों - सा मन 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रेम - प्रसंग/ 2 -श्रद्धा और मनु

 श्रद्धा और मनु 


सुनो श्रद्धा !

तुम्हारे स्पर्श से ही मैं मनु बन गया 

तराशने लगा 

तुम्हारे अनछुए सौंदर्य को 

मनु के आलावा कोई दूसरा 

तराश नहीं सकता तुम्हें

मनु ही हैं तुम्हारी नियति 

तुम , मनु की प्रकृति 

हम दोनों ही एक दूसरे के बिना 

आधे अधूरे हैं श्रद्धा 

तुम्हारे बिना मनु का 

अमृत घट भी रीता है

तुम्हारे लिए मनु मर मर कर भी जीता हैं 

जन्म जन्मांतरों का सम्बन्ध हैं 

तुम्हारा मनु से 

मनु के कोरे मन पर 

अंकित है बस तुम्हारे हस्ताक्षर 

हमारे अनंत अटूट प्रेम की भाषा 

सिर्फ वो ही पढ़ पाएगा 

जिसने जाने  अनजाने 

कभी पढ़ पढ़ कर बाँचा होगा 

कबीर का ढाई आखर वाला प्रेम। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 



प्रेम - प्रसंग/ 2 - पतझड़ी पत्तियाँ

 

पतझड़ी पत्तियाँ

 

पतझड़ी साँसों ने उकेरा

एक उदास गीत मेरे मन पर

मेहराबों से उतरती धूप से

लिपटती रही पत्तियाँ

धूप की तपन को

अपने बदन में ढाल कर


धीरे धीरे प्रेम की तपन से

गलती रहेंगी पत्तियाँ

अभी पेड़ो से झड़ कर

धरती पर बिखर जाएँगी पत्तियाँ

प्रेम की पीड़ा में जल कर

सँवर जाएँगी  पत्तियाँ ,


प्रेम का अनंत  गीत गाएँगी  ,

धरती पर बिखरी

पतझड़ी सूखी पत्तियाँ

धीरे धीरे मेरी आत्मा में

पसर जाएँगी  पत्तियाँ ।

 

 कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

 

Thursday, May 18, 2023

फ़्लैश बैक - उत्तरा स्वामी मलाई मंदिर

 उत्तरा स्वामी मलाई मंदिर 


वसंत विहार दिल्ली के सामने 

और रामा कृष्णा पुरम सेक्टर ७ के  मुहाने पर 

एक ऊँची चट्टान पर स्तिथ मलाई मंदिर से 

जुडी है बहुत सी यादे मेरी 

रहता था जब  रामा कृष्णा पुरम सेक्टर ७ में 

तभी बनना शुरू हुआ था यह मंदिर 

तमिल भगवान् 

स्वामीनाथ/ मुरुगन को समर्पित ये मंदिर 

बना था के वर्षों में 

नीचे ज़मीन पर ही सैकड़ो तमिल शिल्पी 

रात दिन काटते थे पत्थरों  को 

और गढ़ते थे सुन्दर मूर्तियाँ

जब भी उधर से गुज़रता  

शिल्पकारों की छैनी हथोड़े का संगीत 

कानों के रस्ते दिल में उतर जाता 

आज बरसो बाद  मंदिर में ऊपर 

बैठा हूँ एक चट्टान पर उदास 

ढल चुकी है शाम  

स्मृति में लौट रहा है 

छैनी - हथोड़ों का संगीत 

संगीत जो कह रहा है मुझसे -

जब  भगवान् स्वामीनाथ का है साथ

फिर क्यों बैठा  है उदास  ?


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

  

 

फ़्लैश बैक - तंदूरी रोटी

 तंदूरी रोटी 


दिल्ली की कड़ाकेदार ठण्ड 

या फिर भीषण गर्मी 

दोनों ही  में 

तंदूरी रोटी खाने का 

लुत्फ़ ही कुछ और है

असल में खाने से भी ज़्यादा 

तंदूरी रोटियाँ बनवाने या 

सिकवाने का मज़ा है दोगुना   

उस ज़माने में  होते थे लगभग 

दिल्ली की सभी सम्भ्रांत कॉलोनियों में 

ज़मीनी तंदूर यानी 

ज़मीन के अंदर बने मिटटी वाले तंदूर 

घर से आटा ले जाना 

तंदूर वाले को रोटियों की गिनती बता 

इन्तिज़ार करना 

सर्दियों में तंदूर की तपिश से 

ख़ुद को गरमाना 

दूसरे ग्राहकों के साथ बतियाना 

किसी से नज़र चुराना 

किसी पर मुस्कुराना 

फिर गर्म गर्म रोटियाँ ले कर 

घर को लौट जाना 

 एक साथ बैठ कर 

भोजन करना 

उस ज़माने में नहीं थी 

आज जैसी भाग - दौड़ 

और न ही थे मोबाइल फ़ोन 

भोजन के बाद थोड़ा गुड़ या गज़क खाना 

और ओढ़ कर रजाई सो जाना।  

 

कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


 

Wednesday, May 17, 2023

लघुकथा - दो सखियों की गुफ़्तगू

लघुकथा - दो सखियों की गुफ़्तगू 


१ - क्या हुआ तेरे को , कुछ दिन पहले तक तो गुलाब की तरह खिली रहती थी , अब मुरझाई कली सी दिखती हो ?


२ - कुछ नहीं...बस यूँ ही ...


१ - कुछ तो बात है , बता , तुझे मेरी क़सम। 


सखी के इसरार करने पर उसने प्रेम कविताओं की एक  किताब उसकेआगे कर दी। 

 

१ - ये क्या है ? किसकी किताब है  ?


२ - उन्हीं की है जिनके लिए ये दिल कभी धड़कता था लेकिन अब नहीं।  ज़रा पढ़ इन प्रेम कविताओं को ....उनकी ज़िंदगी में ज़रूर कोई दूसरी है। 


१ - समझी ..समझ गयी उसके प्रति तेरे अथाह प्रेम को।  लेकिन ये भी तो हो सकता है की ये कवि की निरी कल्पना हो । 


२ - कल्पना नहीं है ...जानती हूँ मैं....


१ - पागल मत बन , एक बार बात कर उससे , हो सकता है उसका ब्रेकअप हो गया हो । 


२ - काश ऐसा ही हुआ  हो - कह कर सखी ख़ुशी से झूम उठी और सखी के गले लिपट गयी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  

लघुकथा - नटनी

 

 नटनी


मेले में नटनी के खेल को देखने लोग उमड़ रहे थे। लगभग ५० मीटर लम्बी रस्सी पर चलती  युवा नटनी। एक तो खेल का रोमांच दूसरे युवा नटनी का ताम्बाई  रंग और चुस्त अंगिया , भीड़ क्यों न उमड़ती। ऐसे दिलचस्प खेलो से ही तो मेले चलते हैं।  

नटनी ने खेल शुरू कर दिया था।  लोग साँस रोके एकटक नटनी को देख रहे थे।   रस्सी के ठीक नीचे जलते अंगारे। अगर ज़रा सी भी चूक हुई तो अंगारे नटनी के  ताम्बाई बदन  को दागने से चूकेंगे नहीं। लेकिन देखते देखते नटनी दूसरे सिरे पर पहुँच गयी और सकुशल ज़मीन पर उतर गयी।   पब्लिक की ज़ोरदार तालियों से आकाश गूँज उठा। लोकल अख़बार के रिपोर्टर ने नटनी से सवाल किया - 

-"आपको डर नहीं लगता , अगर ज़रा  चूक हुई तो आप अंगारो पर गिर जाएँगी "

-" जो डर सो मरा , बचपन से ये खेल कर रही हूँ , आज तक तो नहीं गिरी  " - नटनी ने बिंदास जवाब दिया। 

- "अच्छा , ये बताये कि आपके गुरु कौन है , मतलब ये हुनर आपने किस से सीखा "

नटनी  अपने नंगे पेट पर ज़ोर से  हथेली बजा कर बोली - ये है ....ये पेट है मेरा गुरु , भूख  इंसान के दिल से मौत का डर भगा देती है।

 नटनी के पेट की आवाज़  रिपोर्टर के कानो में  देर तक गूँजती रही थी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - लाल बल्ब

 

 लाल बल्ब

 

मेरे सामने वाले फ्लैट  में नई पड़ोसन आयी थी। परिचय हुआ तो पता चला कि वो सिंगल मदर ,है और नर्तकी है  , १० साल का बेटा  साथ रहता है। ख़ैर एक अच्छे पडोसी के नाते उनसे कह दिया कि कुछ मदद की ज़रूरत हो तो बता दे , हिचकिचाए नहीं। उसने मुस्कुरा कर सिलसिला आगे बढ़ाया।  

सूरज डूबा तो देखा कि उसके दरवाज़े के बाहर १० वॉट  का छोटा लाल रंग का बल्ब जल रहा था।  मुझे थोड़ा अटपटा लगा। लाल रंग का बल्ब  तो ऑपरेशन थिएटर के बाहर लगता है या फिर तवायफ़ों  के घर के बाहर।  जहाँ ऐसे लाल रंग के बल्ब जल जाये उसे रेड लाइट एरिया बोलते है। .....नहीं , ऐसा नहीं हो सकता। 

उसे ये बात कैसे समझाऊँ। ज़माना ख़राब है , लोग दूसरो के घर के बाहर लाल रंग का बल्ब लगाने की फिराक में रहते हैं। रात काफी गुज़र चुकी थी लेकिन  लाल रंग का बल्ब मुझे सोने नहीं दे रहा  था ।  आख़िरकार मैंने  वो लाल रंग का बल्ब उतारा और वहाँ सफ़ेद रंग का बल्ब लगा दिया।  लाल रंग का बल्ब मैंने अपने पैरों से वही फोड़ दिया।  अगली सुबह मैंने उसे बताया कि किस तरह वो लाल रंग का बल्ब नीचे गिर गया था इसलिये मैंने दूसरा बल्ब लगा दिया। 

बहुत शुक्रिया आपका , आपके जैसा पडोसी भगवान् सब को दे - कह कर खिलखिला पड़ी थी वो। इस वाक़िये को कई  साल हो गए , मेरा लगाया सफ़ेद बल्ब अभी तक जगमगा रहा है।    




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस   

लघुकथा - उपहार

उपहार 

मैं  चेन्नई  के सेंट्रल स्कूल में अध्यापिका थी  और मेरे पति उसी शहर में कॉलेज में प्रोफ़ेसर।  दो साल पहले मेरा तबादला पानीपत कर दिया था , लेकिन मेरे जुगाड़ू पति ने दो साल पूरे  होते होते मेरा तबादला वापिस चेन्नई करवा  दिया था। मैं बहुत ख़ुश थी , मेरे पति मुझे ले जाने के लिए आये हुए थे।  हम ने पानीपत की प्रसिद्ध चीज़े ख़रीदी मसलन दरी , कम्बल आदि और घर का सारा सामान ट्रांसपोर्ट द्वारा चेन्नई के लिए रवाना कर दिया। 
१५ दिन बाद जब ट्रांसपोर्टर का ट्रक आया तो देखा कि जो भी नए उपहार पानीपत में ख़रीदे थे   वो सब रास्ते  में चोरी हो गए थे। पति पुलिस को चोरी हुए उपहारों का ब्यौरा दे रहे थे। तभी पुलिस वाले ने हमसे पूछा - आपने अपनी माँ के लिए कौन सा उपहार ख़रीदा था ? पुलिस वाले का सवाल सुन कर हम अचकचा गए और एक दूसरे को देखने लगे।  वास्तव में हमने माँ जी के लिए कुछ नहीं ख़रीदा था। पुलिस वाला हमारे चेहरों को देख कर बोला , अगर अपनी माँ के लिए एक रूमाल भी ख़रीद लाते तो कुछ भी चोरी नहीं होता।आप लोग जाइये अब , जैसे ही चोर की कुछ ख़बर मिलेगी , आपको सूचित करेंगे। 

हमने अपनी नज़रे झुकाई और पुलिस थाने से बाहर आ गए।  

लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस    

Tuesday, May 16, 2023

लघुकथा - कॉकटेल

कॉकटेल 

अपने ऑफिस में घुसते ही मुख्य रिपोर्टर ने मेज़ पर पड़ी प्रेस विज्ञप्तियों को उठाया। कुल मिला कर १५ निमंत्रण कार्ड  थे , जिनमे १० साहित्यिक कार्यक्रम , २ आध्यात्मिक कार्यक्रम , २ फिल्मों के पास और १५ वा  रंगीन निमंत्रण किसी विदेशी कंपनी का था जो अपना प्रोडक्ट भारत में लांच करने वाले थे। निमंत्रण कार्ड के अंतिम वाक्य - " Program will be followed by cocktail . " पर साहब की निगाह अटक गयी और उन्होंने अपने सूखे होठों पे ज़बान फेरी। उन्होंने वो कार्ड मोड़ कर अपनी जेब में डाला  और बाक़ी कार्ड्स कवरेज के लिए जूनियर रिपोर्टर्स में बाँट दिए 
जबकि उन्हें मालूम था  कि अख़बार में  ख़बर उसी कार्यक्रम की छापी जाएगी जिस  कार्यक्रम में कॉकटेल पिलाई जाएगी। 

लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - शबरी

 लघुकथा - शबरी 


सेठ जी की तबीयत कई दिनों से खराब थी। छाती में ठण्ड बैठ गयी थी। सेठानी अपने हाथो से दबा दबा के मटन कबाब के टुकड़े सेठ जी को खिलाती जिससे उसमे हड्डी न चली जाये। यह देख कर सेठ जी ने सेठानी से कहा - अरे , तुम तो शबरी बन गयी हो। 

-" कहाँ शबरी और कहाँ मैं , शबरी ने तो मांस त्याग कर श्री राम को  बेर खिलाये और मैं तो आपको मांस खिलाती हूँ.. सेठानी ने संकोच से कहा।

" अरे पगली , बेर या मटन से कोई शबरी नहीं बनता , ये तो बेलाग इश्क़ और पवित्र प्रेम है जो किसी को शबरी बनाता है। आज से मैं तुम्हें शबरी ही कह कर पुकारूंगा। "

सेठानी ने लाज से वो पलकें झुका ली जिन पर सेठ जी ने मोहब्बत के चिराग़ सजा दिए  थे। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस   


Monday, May 15, 2023

वसंत का ठहाका - लंगड़े घोड़े की टूटी नाल

 



लंगड़े घोड़े की टूटी नाल 


धीरे धीरे एक कविता 

मेरे भीतर रीत गयी 

रीत गया सन्नाटा भी 

और ज़िंदा ज़ख़्म की रौशनी 

पसर गयी मेरी आत्मा में ,  

इस रौशनी में मुझे 

दिखाई पड़ते हैं गुज़रे साल 

एक माँ के पैरों की जन्नत 

एक पिता का अनंत आकाश 

एक भूला बिसरा मधुपाश , 

भागती ज़िंदगी की 

बेतरतीब सड़क पर 

एक लंगड़े घोड़े की टूटी नाल, 

इस रौशनी में मुझे 

दिखाई पड़ते हैं गुज़रे साल। 


- इन्दुकांत आंगिरस 


  

लघुकथा - धार्मिक सेमिनार

 धार्मिक सेमिनार 


लोकतंत्र   में आयोजित धार्मिक सेमिनार में ईसाई , हिन्दू , मुसलमान और  सिख धर्म के प्रतिनिधि  उपस्थित थे  ।  कुछ  ईसाईयों ने   हिन्दुओं  को ईसाई बनाया तो मसीहा मुस्कुराया। कुछ मुस्लिम भाइयों ने हिन्दुओं और सिखों  को मुसलमान बनाया तो अल्लाह ने लगाया  ठहाका।हिन्दुओं ने ईसाई और मुसलामानों को हिन्दू बनाया तो  शिव के  डमरुँ ने ब्रह्मनाद बजाया। हिन्दुओं ने सबको हिंदुत्व का पाठ पढ़ाया। सब कुछ सुभीते से हो गया लेकिन अफ़सोस कि इस अदला बदली में इंसान खो गया। आकाश से एक तारा टूटा , मानवता पर बिजली गिरी और धर्म का सर शर्म से झुक गया। सभी धर्म के लोग सेमिनार से निकले और अपने अपने दबड़ों में लौट गए। 


लेखक - - इन्दुकांत आंगिरस 


  

Saturday, May 13, 2023

फ़्लैश बैक - माँ

 माँ की स्मृति में ,


माँ , क्या लिखूँ तुम्हारी स्मृति में 

सबको देती थी आशीर्वाद तुम -

 " जीते रहो , ख़ुश  रहो "

अस्पताल में बहुत बीमार थी तुम 

लेकिन तब भी फ़िक्र थी हमारी 

कहा था तुमने मुझसे और भाई से 

- तुम्हे परेशान न करे कोई।


माँ , क्या लिखूँ तुम्हारी स्मृति में 

न शब्द हैं न काग़ज़ 

रख दी है क़लम मैंने 

और सोचने लगा हूँ तुम्हें। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस  


फ़्लैश बैक - वो लड़की

  वो लड़की 


वो लड़की बिंदास 

रहती थी घर के पास 

मिलती थी जब कभी राह में 

कहती थी खिल कर -

 " Hey , I love  your  Jeep "

और  लेता था मैं चुटकी -

" Love me too ..."

खिलखिला उठती थी झरने की तरह 

बिंदास करती थी रक़्स 

फ़ारसी गानों की धुन पर 

उसके साथ गुज़ारी एक शाम 

आज भी ताज़ा है रूह में 

अफ़सोस उठ गया जनाज़ा उसका 

लेकिन आज भी टूटी - फूटी  फ़ारसी में 

बात करता हूँ उसकी रूह से। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


फ़्लैश बैक - बड़ी बुआ

 बड़ी बुआ 


हर दिल अज़ीज़ थी मेरी बड़ी  बुआ 

परिवार में कुछ भी  होता 

अच्छा या बुरा 

मिलते ही ख़बर

दौड़ी आती थी पहली गाडी से 

एक छोटा बैग , एक कंडिया 

ज़ाफ़रानी  ज़र्दे की पुड़िया   

और पिछलग्गू गुड्डू भाई 

( उनका कनिष्ट पुत्र - मेरा फुफेरा भाई ) 

मिलती थी सबसे गले लग के   

मिनटों में घर लेती थी संभाल 

रखती थी वो सबका ख़्याल

और रात को फुर्सत में 

सुनाती थी मुझे दिलचस्प  क़िस्से 

पुरानी ज़िंदगी के 

कुछ अपने , कुछ ग़ैरों के 

काम सब निबटा के  

लौट जाती थी ख़ुशी ख़ुशी घर अपने 

भाई के दिए नेग को लगा सर अपने 

जब से नहीं रही दुनिया में बड़ी बुआ 

कोई नहीं आता घर अब 

ख़ुशी में या ग़म में 

बस याद बहुत आती है बड़ी बुआ। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

 

फ़्लैश बैक - ट्रांज़िस्टर

 ट्रांज़िस्टर 


पड़ गया था जब बहुत बीमार 

महीनों रहना पड़ा अस्पताल में 

पिता जी आते थे मिलने रोज़ 

ले आये थे ट्रांज़िस्टर इक रोज़ 

आ गयी थी तब मेरी मौज 

सुनता था मनपसंद गाने 

बहलाता था यूँ अपना दिल 

वक़्त तो था बहुत मुश्किल 

लेकिन गुज़र गया ,

ठीक होने के बाद सब कुछ 

हुआ हासिल ज़िंदगी में 

नहाया मैं हर रौशनी में ,

आज बरसो बाद 

एक  पुराने संदूक में मिल  गया

वोही ट्रांज़िस्टर 

यादों का एक ज़खीरा ताज़ा हो गया 

पिता जी आज नहीं है ज़िंदा 

लेकिन  उस ट्रांज़िस्टर से उभरा 

एक भूला बिसरा नग़मा 

" चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये 

देश हुआ बेगाना "

बजने लगा रात के सन्नाटे में--। 


    कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Friday, May 12, 2023

फ़्लैश बैक - आकाशवाणी - दिल्ली

   

आकाशवाणी - दिल्ली


एक ज़माना था 

जब हर महीने आकाशवाणी दिल्ली में 

करता था प्रस्तुत 

फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम 

तो कभी कविता पाठ 

मिलता था ७५ / का चैक 

जिससे होता था अक्सर 

पान वाले के उधार का भुगतान 

अब तो एक मुद्दत हो गयी 

आकाशवाणी भवन गए हुए 

लेकिन आतें  हैं आज भी बहुत याद 

आकाशवाणी के घुमावदार गलियारे 

रिकॉर्डिंग स्टूडियो , 

पुराने गानों के दुर्लभ रिकार्ड्स 

और घूमते हुए   टेप्स। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

फ़्लैश बैक - भूले बिसरे गीत

 भूले बिसरे गीत 


ठीक ८ बज कर १० मिनट पर 

शुरू होता था 

पुराने फ़िल्मी गानों का

 कार्यक्रम - भूले बिसरे गीत 

बीस मिनट का ये वक़्त 

पंख लगा कर उड़ जाता 

 मेरी आत्मा को सरोबार कर जाता, 

अब तो बरसो हो गए 

घर में रेडियो भी नहीं है 

सुन लेता हूँ आज भी पुराने गाने यूट्यूब पर 

लेकिन जो लुत्फ़ और मज़ा 

रेडियो पर भूले बिसरे गीत 

कार्यक्रम सुनने में आता था 

वैसा लुत्फ़ अब कही नहीं मिलता। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

फ़्लैश बैक -ग़ाज़ियाबाद स्टेशन भूड़ थाना

 ग़ाज़ियाबाद स्टेशन भूड़ थाना 


मस्ती में चढ़ रहा था प्लेटफ़ॉर्म  की सीढ़ियाँ  

तभी TT ने माँगा टिकट 

देख कर मेरा टिकट रोक लिया मुझको 

क्योंकि ट्रैन थी एक्सप्रेस और टिकट था पैसेंजर 

मैंने अँगरेज़ी झाड़ी जो TT पर 

हो गया और भी खफ़ा मुझ पर 

ले गया मुझे भूड़ के थाने में 

थानेदार था नशे में 

सुनकर TT की बात 

डाला उसने मुझे जेल में 

जहाँ था पहले से एक चोर 

और उठ रही थी बदबू पेशाब की 

उन दिनों नहीं थे मोबाइल फ़ोन    

 एक रिक्शा वाले को  दिया घर का पता 

पहुँचाने को मेरा संदेसा 

लगभग एक घंटे बाद आये थे 

मेरे पिता और दादा जी 

डाँटा था थानेदार को   

और छुड़ाया था मुझे जेल से ,

लगभग दो घंटे रहा था उस जेल कोठरी में 

नाक पर रख कर रुमाल 

उस दिन मालूम पड़ा 

कैसे होते है जेल और क़ैदी।  


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - औलाद मुराद

 लघुकथा - औलाद मुराद 


 रामकुमार की शादी को १० साल हो गए थे लेकिन अभी तक कोई औलाद न हुई थी। सभी तरह का इलाज , झाड़ - फूंक  करवा चुके थे लेकिन ढ़ाक के वही तीन पात।  कुछ लोगो के सुझाव पर एक दिन मंदिर चले गए और  ईश्वर के दरबार में अपनी हाज़री लगा दी। आधे घंटे बाद मंदिर से बाहर निकले तो देखा कि उनके स्कूटर की सीट पर सैकड़ो सूराख हो गए थे और वह सीट एक छलनी की तरह लग रही थी। 

यह देख रामकुमार का दिमाग़ भन्ना  गया। आस - पास नज़र दौड़ाई , कुछ लड़के लट्टू नचा रहे थे।  रामकुमार ने उनसे डाँट कर पूछा -

किसने करा है ये ?

तीन ने चौथे की तरफ ऊँगली उठा दी।  रामकुमार ने  उस १०-१२ साल के लड़के जम कर पिटाई  करी और दी गालियाँ - साले , कमीने , सूअर की औलाद .... गालियाँ सुनी भोलेनाथ  ने भी और  कहा पार्वती से -  मैंने कहा था न तुमसे , इन्हें बेऔलाद ही रहने दो।  लड़का अभी भी रो रहा था लेकिन  पार्वती चुप थी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, May 11, 2023

लघुकथा - किरायेदार

लघुकथा  - किरायेदार 


जब मकान ख़ाली ही कर दिया तो मकान में  ताला क्यों लगा आये - मैंने अपने सहकर्मी से  पूछा । 

- " अरे यार , तुम नहीं जानते , अब मैंने उस मकान मालिक को नाको चने न चबवा दिए तो कहना "। 

- " वो कैसे ? " मैंने जिज्ञासा से पूछा। 

-" आठ - दस साल से पहले तो मुकदमा  ख़त्म होने से रहा और ये भी निश्चित है कि हारूंगा मैं ही ,   लेकिन मुझे बस 500 / महीना किराया ही  तो देना पड़ेगा , दे दूँगा। "

- " लेकिन इसमें  तुम्हारा क्या लाभ होगा ? मैंने उत्सुकता से पूछा। "

- "अरे भाई , जीवन में हर काम अपने लाभ के लिए नहीं किया जाता , दुश्मन के नुक्सान का भी मज़ा लेना सीखो   - उसने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा। 

 सहकर्मी के इस ब्यान पर मैं इतनी गहरी सोच में पड़ गया , इतनी गहरी सोच में पड़ गया  कि अभी तक सोच रहा हूँ। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


 

 

Tuesday, May 9, 2023

फ़्लैश बैक - क्रिकेट

 क्रिकेट 


बचपन में खेला था क्रिकेट भी 

होते थे बस हम तीन खिलाड़ी 

मैं ,मेरे  मामा और ममेरा भाई 

एक बैट्समैन , एक बॉलर 

और एक फील्डर

घर में ही खेला जाता था ये खेल 

कुछ और बड़ा हुआ 

तो कॉलोनी के लड़कों के साथ 

खेला था कुछ दिन क्रिकेट  का खेल 

खेलता ज़रूर था 

लेकिन नहीं थी उतनी दिलचस्पी 

एक बार एक मैच के दौरान 

मुझे बना दिया था टीम का कप्तान 

उस दिन हुआ था मैं बहुत हैरान। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस  

 

फ़्लैश बैक - बिलियर्ड्स

 बिलियर्ड्स 


कम उम्र में ही पड़ गया था चस्का 

बिलियर्ड्स और स्नूकर खेल का मुझको

खेल तो   था  रईसों का 

लेकिन भा गया था मुझको , 

घंटो वसंत विहार क्लब में 

खेलता था बिलियर्ड्स 

नौकरी के दौरान भी 

कई बार लंच टाइम में 

कनॉट प्लेस में कई 

प्रोफेशनल खिलाडियों के साथ भी 

खेलता था अपना मनपसंद खेल 

हज़ारो रूपये लुटा दिए 

खेल खेल में 

अभी कई सालों से नहीं खेला बिलियर्ड्स 

लेकिन कैनन , रेड इन ऑफ , वाइट इन ऑफ 

का लुत्फ़ आज भी दिल को मेरे 

तरोताज़ा कर देता है। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


फ़्लैश बैक - सारंगी

 

 सारंगी


रूसी सांस्कृतिक केंद्र में एक शाम 

कत्थक नृत्य का था कार्यक्रम 

वक़्त से कुछ पहले ही पहुँच गया था 

ऑडोटोरियम में अकेला ही बैठा था 

तभी स्टेज पर सारंगी नवाज़ ने 

छेड़ी थी ऐसी दर्द भरी तान 

कि दिल को चीरते हुए मेरी रूह तक 

उतर गयी थी वो तान 

बस तभी किया था निश्चय कि 

सीखना ज़रूर है ये साज़ 

जिसका नाम है सारंगी 

इंसानी आवाज़ के सबसे करीब 

सौ रंगो वाली सारंगी,

बहुत तवील है 

मेरी सारंगी सीखने की कहानी 

अफ़सोस कि पारंगत नहीं हो  पाया 

इस हुनर में 

लेकिन ख़ुशी इस बात की

जब भी होता है दिल उदास 

तो बजाता हूँ सारंगी 

और सुनाता हूँ अपनी रूह को 

दर्द भरा नग़मा एक।  



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

फ़्लैश बैक - हवाईन्ग गिटार

हवाईन्ग  गिटार 


गली कीर्तन वाली ग़ाज़ियाबाद में 

गया था हवाईन्ग गिटार सीखने 

पहले ही दिन 

गुरु जी ने सिखा  दिया गाना -

' ऐ मेरे दिल कही और चल 

 ग़म की दुनिया से दिल भर गया 

 मैं यहाँ जीते जी मर गया '

लिखवा दी  थी  गुरु जी ने 

गाने की सरगम 

बहुत ख़ुश हुए थे हम 

घर पर आकर ख़ुद को 

कर लिया था बंद स्टोर रूम में

और लगभग एक घंटे तक 

अभ्यास करने के बाद 

निकल पड़ा था गाना साज़ से 

थपथपाई थी ख़ुद ही अपनी पीठ 

पसीने की चंद बूँदे  

साज़ की आवाज़ 

और गाने के बोल -

ऐ मेरे दिल कही और चल .....

लेकिन अफ़सोस कुछ सालों बाद 

छूट गया था गिटार का साथ । 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

 

लघुकथा - लाचार भिखारी

 लघुकथा - लाचार  भिखारी  


रेड  लाइट सिग्नल पर कार के रुकते ही , भिखारी को  अपनी तरफ आता देख मैंने झट से पत्नी को सचेत किया -

- " शीशा बंद कर  लो , इनका कोई भरोसा  नहीं , एक मिनट में चेन  तोड़ कर भाग जायेंगे। "


पत्नी ने तत्काल शीशा बंद कर लिया , लेकिन शीशे के करीब लाचार भिखारी को खड़ा देख कर धीरे से बुदबुदाई थी - 


" अजी  सुनते हो , इस बेचारे के तो हाथ ही नहीं हैं। "


भिखारी के  दोनों हाथ कटे हुए थे।  मैंने एक नज़र भिखारी को ग़ौर से देखा और अपनी नज़रे झुका ली या यूँ समझिये कि भिखारी से अपनी नज़रे चुरा ली। 


लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस 


फ़्लैश बैक - प्याऊ पानी और ओक

 प्याऊ  पानी और ओक


उस ज़माने में नहीं था  

मिनरल वॉटर की बोतलों का चलन 

और पुरानी दिल्ली की गलियों में 

जगह जगह हुआ करती थीं  प्याऊ  

जोकि राह चलते मुसाफ़िरों की

 बुझाती  थी प्यास ,

 प्याऊं में बड़े बड़े मिट्टी  के घड़े 

पीतल  या काँसे की कूंडों  में

 भरा रहता था पानी 

 हर  प्याऊ  में मिलती थी  कोई

  बूढ़ी अम्मा या नानी 

 काँसे या पीतल की लुटिया से

 राह चलते मुसाफ़िरों को पिलाती पानी 

लोग ओक लगाकर  पीते पानी 

और अपनी ख़ुशी से 

अपनी अपनी श्रद्धानुसार 

 १,२ ,३,५ ,या १० पैसे के  सिक्के 

उस प्याऊ  पर रख देते 

तो कोई कुछ भी नहीं देता 

और पानी पीकर आगे बढ़ जाता

पिया ख़ुद मैंने सैकड़ों बार प्याऊ  का पानी 

कटरा गोकुलशाह के नुक्कड़ पर बनी प्याऊ  

आज भी है ज़ेहन में ताज़ा  

पानी पिलाने वाली अम्मा का चेहरा 

नज़र में धुंधला धुंधला 

लेकिन कभी मिटा नहीं ,

आज टेक्नॉलजी  के चलते 

घर घर में RO और वाटर फ़िल्टर मिलते 

लेकिन प्याऊ  से पानी पीने का वो लुत्फ़ अब कहाँ

वो अम्मा , वो नानी वाला जहाँ  अब कहाँ 

वो अम्मा से राम राम , वो नानी से श्याम श्याम 

पिया ज़िंदगी में महंगे  से  महंगा पानी 

लेकिन उस पानी जैसा ज़ाइका अब कहाँ ? 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


फ़्लैश बैक - गुल्लू अंकल

 गुल्लू अंकल 


बहुत दिलकश और ख़ुशमिज़ाज   थे गुल्लू अंकल 

बहुत भाता था मुझे 

उनके गले में पड़ा मफ़लर  

सर्दियों में ऊनी तो गर्मियों में रेशमी मफ़लर 

देखा नहीं कभी उन्हें बिना मफ़लर 

हफ़्ते में दो - तीन बार आते थे मिलने पिता जी से 

करते थे मुझे बहुत प्यार 

मेरे पेट को अपनी उँगलियों से 

हमेशा गुदगुदाते 

मुझे बेतहाशा हँसाते 

सालों गुज़र गए छोड़े हुए बाज़ार सीता राम 

न हुई उनसे दोबारा मुलाक़ात 

ज़िंदगी में बहुत ठहाके लगाए 

और जब जब गुदगुदी हुई पेट में 

गुल्लू अंकल बहुत याद आए। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

फ़्लैश बैक - रिक्शा


कविता - रिक्शा 


शायद  अप्रैल का था महीना 

अपनी माँ के साथ रिक्शा में बैठ 

जा रहा था बाज़ार सीताराम 

पुरानी दिल्ली स्टेशन से 

फतेहपुरी मस्जिद के बगल से 

लाल कुआँ से गुज़रते हुए 

अचानक रिक्शा वाले ने मारा था ब्रेक 

और माँ मेरी उछल कर गिर पड़ी थी

सड़क पर 

ख़ुद को भी संभाला मुश्किल से 

 उठाया था मैंने  उन्हें झटपट

और बरस पड़ा था रिक्शा वाले पर  

 माँ भी ग़ुस्से से तमतमा गयी थी 

राहगीरों ने  डांटा था कस कर

रिक्शा वाले को 

नहीं निकला था ख़ून

लेकिन माँ के सर पर 

उभर  गया था एक गोला 

जिसको बैठने में लगे थे 

कई हफ़्ते 

तभी से सीख गया था 

मैं ठीक से रिक्शा में बैठना।



कवि - इन्दुकांत आंगिरस  



 

Monday, May 8, 2023

लघुकथा - गुड़

लघुकथा - गुड़  


जब कभी भी नई लघुकथा  लिखता हूँ और उसे दोबारा पढ़ कर  बोलता हूँ  स्वयं को - गुड।  ज़ेहन में जगदीश कश्यप की याद ताज़ा हो जाती है। 

गली कीर्तन वाली , ग़ाज़ियाबाद का वो छोटा सा कमरा जहाँ सुनी थी पहली बार लघुकथा। उनके घर की गोष्ठियों  में  जब भी लघुकथा पढता तो जगदीश कश्यप गुड कह कर मुझे प्रोत्साहित करते। उनका गुड का उच्चारण हिंदी की गुड़ शब्द जैसा होता और होती थी उसमे वैसी ही मिठास। आज जगदीश कश्यप हमारे बीच नहीं लेकिन उनका गुड़ आज भी ज़िंदा है जो मुझे नई नई लघुकथाएँ लिखने के लिए प्रेरित करता रहता है। 

अरे , बातों बातों में लघुकथा हो गयी ,  गुड..गुड़ 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  

Sunday, May 7, 2023

लघुकथा - आइसक्रीम

लघुकथा - आइसक्रीम 



 - "शादी से पहले तो तुम मेरे लिए  चाँद -तारे तोड़ कर लाने की बात करते थे और अब एक आइसक्रीम भी नहीं खिला सकते ?-"  पत्नी ने पति को उलाहना देते हुए कहा।


- " अरे ,आइसक्रीम अभी खिला देता हूँ ,लेकिन " ..... पति ने तपाक से जवाब दिया। 


-"लेकिन क्या  , लेकिन क्या  ? "


-" वा'दा करो ,आगे से चाँद -तारों का ज़िक्र नहीं करोगी  । "


- "ठीक है  ,नहीं करुँगी" ,  पत्नी ने आइसक्रीम को चाटते हुए कहा था। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 



Saturday, May 6, 2023

लघुकथा - सैल्यूट

 लघुकथा - सैल्यूट


कड़ाके की ठण्ड में डूबी दिल्ली की एक सुबह। रात में फ्ल्योवेरों के नीचे सोने वाले ग़रीब लोग अब रेड लाइट सिग्नल्स के करीब चाय सुड़क रहे थे। 

ठण्ड में सिकुड़ते  मर्द - औरत और अधनंगे बच्चे। कप्तान विशाल की आर्मी कार जैसे ही सिग्नल पर रुकी एक ८ - १० साल के लड़के ने उनकी कार का दरवाज़ा खटखटाया। लड़का ठण्ड में काँप रहा था। कप्तान विशाल को जाने क्या सूझा कि अपनी गर्म टोपी बच्चे को पहना दी। लड़के ने फ़ौजी टोपी पहनते ही कप्तान विशाल को सैल्यूट मारा। विशाल को लगा एक हिंदुस्तानी  फ़ौजी  ने दूसरे हिंदुस्तानी फ़ौजी को  सैल्यूट मारा है।  कार आगे बढ़ गयी थी लेकिन विशाल समझ नहीं पा  रहा था कि जिस देश में कुछ फ़ौजी सरहद पर देश की  रक्षा करते  हैं , उसी देश में  कुछ फ़ौजी रेड लाइट सिग्नल्स पर ठण्ड में कांपते हुए भीख मांगने पर  मजबूर क्यों हैं ?



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 



 


 

फ़्लैश बैक - आख़िरी सीढ़ी

 आख़िरी सीढ़ी 


अपनी कमर पे स्कूल बैग लटकाये 

पानी की बोतल हाथ में घुमाये

कोई गीत गुनगुनाते हुए 

चढ़ता जा रहा था लकड़ी का  ज़ीना

बस आख़िरी सीढ़ी थी बाक़ी 

कि तभी मेरा पाँव फिसला 

रपट गया लकड़ी के ज़ीने से

पत्थर के ज़ीने पे 

फट गया  था मेरा सर 

उसके बाद नहीं कुछ याद 

पर  भूला नहीं हूँ आज भी -

हाथी दांत  वाले नाना त्रिलोकीनाथ 

मुझे ले गए थे उठा के अस्पताल 

सर में लगे थे कई टाँके 

नाना की सफ़ेद कमीज़ 

मेरे ख़ून से हो गयी थी पूरी  लाल,

सर में आज भी है उस ज़ख़्म का निशान

जब कभी फेरता हूँ हाथ सर में 

तो ताज़ा हो जाता है ज़ेहन में 

नाना त्रिलोकीनाथ का चेहरा 

और मेरे ख़ून में डूबी उनकी सफ़ेद कमीज़। 


कविता - इन्दुकांत आंगिरस 

   

फ़्लैश बैक - मद्दो

 



मद्दों 


कई सालों बाद एक शादी में 

किसी ने मुझे नाम से पुकारा 

मैंने नहीं पहचाना तो उसने 

याद दिलाया अपना नाम 

 मेरे ज़ेहन में ताज़ा हो गया 

बरसो पुराना एक चेहरा  

मधु था जिसका नाम 

पुकारते थे  जिसे सभी मद्दो कह कर 

वो चुलबुली १२- १४ साल की लड़की 

आज एक दादी  बन सामने खड़ी थी 

लेकिन उससे मेरी कई यादें जुडी थी 

कुछ धुंधली यादें..... 

कुछ बिसरी यादें.....

कुछ गहरी  यादें ...

कुछ बहरी  यादें ...

पूछा जब उससे मैंने -

" और कैसी हो मद्दों ?"

कँवल के फूल सा 

खिल उठा उसका चेहरा। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 








हंगेरियन लोककथा - कुत्ता बनना चाहता है

 कुत्ता बनना चाहता है 


प्राचीन समय की बात है।  एक अमीर किसान अपने बड़े लड़के के साथ रहता था। एक दिन किसान अपने खेत पर जाता है , उसके साथ उसका लड़का , नौकर - चाकर और दिहाड़ी मज़दूर भी जाते हैं।  सब मिलकर इतनी भूसा एकत्रित करते है कि सबके पसीने छूटने लगते है। 

मालिक के कुत्ते के अलावा सभी काम करते हैं, जबकि कुत्ता एक झाडी की छाँव में बैठ आराम फरमाता है।  

किसान का लड़का कुत्ते को देखता हैं और उसके आराम से ईर्ष्या से जलते हुए   अपने पिता से कहता है, " पापा ,  मुझे  कुत्ता बनना  है।  "

" क्या वाकई तुम कुत्ता बनना चाहते हो , अगर ऐसा हैं तो काम मत करो और   कुत्ते के पास जा कर बैठ जाओ , मुझे कोई ऐतराज नहीं हैं "


जवान लड़का  बिना दोबारा सोचे झाडी के नीचे आराम करने चला गया , गहरी नींद सोया जबकि दूसरे लोग काम करते रहें, लेकिन उसने चम्मच तक नहीं उठाया। 

तभी दोपहर के भोजन का समय  हो गया। 

तब किसान अपने नौकरों और दिहाड़ी मज़दूरों के साथ भोजन करने बैठे , लेकिन उन्होंने लड़के को भोजन के नज़दीन नहीं आने दिया। 

उन्होंने कुत्ते कि मानिंद   उसकी ओर  ब्रेड के टुकड़े और हड्डिया फेंकी । 

इससे लड़के को अधिक चोट नहीं पहुंची क्योकि  अभी उसे उतनी भूख नहीं थी। लंच के बाद लड़का फिर से छाया में लेट गया ओर नाश्ते के वक़्त तक वही लेटा रहा। 

नौकर ओर दिहादिमजदूर नाश्ता करने आये जबकि झाडी में सोया लड़का अभी नींद से जागा था। वह वहाँ गया कि उसे भी कुछ खाने को मिल जाये। 

" अभी प्रतीक्षा करो बेटा, तुम्हे भी ईमानदारी से तुम्हारा नाश्ता मिलेगा , कुत्ते के साथ।  " ओर फिर उन्होंने लड़के कि तरफ ब्रेड के कुछ टुकड़े ही फेंके। 


लेकिन शाम तक लड़के कि आँखें लाल हो गयी थी ओर उसने अपने पिता से कहा -

" पापा बस काफी हो गया , अब मुझे ओर कुत्ता नहीं बनना क्योंकि एक कुत्ता वाकई में कुत्ता ही होता हैं। "

किसान ने अपने बेटे से कहा - देखा तुमने , आदमी आदमी होता है और कुत्ता कुत्ता होता है।  


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 


Friday, May 5, 2023

लघुकथा - दो गज ज़मीन

 लघुकथा - दो गज़ ज़मीन 


शमशान ने कब्रिस्तान से कहा - " तुम्हारी मौज है भाई , हर मौत के साथ तुम्हारी प्रॉपर्टी बढ़ती जाती है।  २ गज मुर्दे  की  ज़मीन और २ गज का फ़ासला।  यहाँ रात - दिन जलना पड़ता है , एक के बाद  एक चिता , पिछली राख ठंडी भी नहीं होती कि नयी चिता तैयार। ज़मीन उतनी की उतनी। "

- " दूर के ढोल सबको सुहावने दिखाई देते हैं " , - कब्रिस्तान ने शमशान से कहा। " तुम्हें क्या मालूम मुझे कितनी मर्मान्तक पीड़ा से गुज़ारना पड़ता है। सारी ज़िंदगी मुझे पैरो से रोंदने वाला ये इंसान मरने के बाद भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता। मुझे उसके कंकाल के साथ सदियों तक रहना पड़ता है , एक ऐसी बंद मज़ार में  , जहाँ से हवा जा नहीं सकती , जहाँ हवा आ नहीं सकती।  तुम तो बहुत ख़ुशनसीब हो , कम से कम  हवा और रौशनी तो पाते हो और हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा देते हो। " 


- " हाँ , ये बात तो सच है , मैं हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा देता हूँ  "- शमशान ने मुस्कुराते हुए कहा और नई चिता का धुआँ  आकाश में उड़ने लगा ।   


 

 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 



लघुकथा - तलाशी

 लघुकथा - तलाशी 


कम्पनी के मैन गेट से बाहर निकलते वक़्त वॉचमन मेरी ज़ेबो की तलाशी लेता मुझे रोज़ ज़लील होना पड़ता।  उस शाम मैन गेट के बाहर मेरी पत्नी और  बिटिया मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने मुझे गेट से बाहर निकलते देखा और देखा कि किस तरह वॉचमन मेरी ज़ेबों की तलाशी ले रहा था। मुझसे पहले कंपनी का एक अफ़सर भी निकला था लेकिन उसकी तलाशी नहीं ली गयी थी। 

यह देख मेरी बिटिया ने मुझसे पूछा था - पापा , आपसे पहले निकलने वाले आदमी की तो तलाशी नहीं ली गयी फिर वॉचमन आपकी तलाशी क्यों ले रहा था ?

- " बेटा , तलाशी सिर्फ मज़दूरों की ली जाती है , अफ़सरों की  नहीं " मैंने बिटिया को समझते हुए कहा। 


- " क्यों पापा, अफ़सरों की पतलूनों में ज़ेबे नहीं होती क्या ? "


बिटिया के इस मासूम  सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। 



 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


लघुकथा - जन्नत की ट्रैन

लघुकथा - जन्नत की ट्रैन 


- " भाईसाहब , ये ट्रैन कहाँ जा रही है ? "


- " आपको कहाँ जाना हैं ? " 


- " मुझे ..मुझे ..मुझे जन्नत जाना है। "


- " जन्नत की ट्रैन तो अगले इतवार को जाएगी , ये ट्रैन तो दोज़ख जा रही है । "


- " अच्छा , अगला इतवार ...तब तक तो बहुत देर हो जाएगी।  "


- " तो इसी में बैठ जाओ , वहाँ से ले लेना जन्नत की ट्रैन।  "


- " हाँ , यही ठीक रहेगा " - कहता हुए  मुसाफ़िर ने ट्रैन में क़दम रखा और  ट्रैन चल पड़ी गोया उसी का इन्तिज़ार कर रही थी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


Wednesday, May 3, 2023

लघुकथा - पहलवान

 लघुकथा - पहलवान 


अध्यापक  ने स्कूल के बच्चे से पूछा - "अच्छा बेटा ये बताओ कि बड़े होकर आप क्या बनना चाहोगे ? " 


बच्चा सोचने लगा    - " मैं बड़े होकर ....क्या बनना चाहुँगा "


- "हाँ , मतलब , इंजीनियर , डॉक्टर , जज , आईएएस अधिकारी , अध्यापक या फौजी   ? "


- "मैं बड़े होकर पहलवान बनूँगा।" - बच्चे ने उछलते  हुए जवाब दिया।  


- "पहलवान , वो क्यों बेटा ? "अध्यापक ने अचकचा के पूछा।  



- "क्योंकि राजनीति के अखाड़े में भ्रष्ट  सरकार को एक पहलवान  ही गिरा सकता है।"


बच्चे का जवाब सुनकर अध्यापक ने पाठ्यक्रम की पुस्तक बंद कर दी। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - प्रतिक्रिया

 प्रतिक्रिया 


गौरी नाम है मेरी बिटिया का। खिलौनों में सबसे प्यारी उसे अपनी गुड़िया लगती है। वह अपनी रबड़ की गुड़िया से बतियाती ,उसे दुलारती - पुचकारती। उसे नहला धुला कर उसके कपडे बदलती , उसका मेकअप  करती ,उसे लहँगा चुन्नी पहना कर दुल्हन सी सजा देती। कभी उसे सुलाती तो कभी पढ़ाती।  यह सब कार्य बड़े यत्न से करती। यह सब देख मुझे लगता कि वह रबड़ कि गुड़िया कोई खिलौना नहीं अपितु उसमे भी प्राण है। एक दिन गुड़िया से खेलते खेलते अचानक गौरी बिगड़ जाती है और रबड़ की गुड़िया को बुरी तरह पीटने लगती है। उसके इस व्यवहार से मैं अचकचा गया और गौरी से पूछ बैठा -  गौरी बिटिया , गुड़िया को क्यों मारती हो ?

- " पापा , जब मैं मम्मी का कहना नहीं मानती तो मम्मी भी मेरी पिटाई ऐसे ही करती है , आज मैं इसे ठीक करके छोडूंगी " गौरी ने दाँत पीसते हुए जवाब दिया था और मैं एक बुत सा खड़ा उसका पीटना देखता रहा था। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

फ़्लैश बैक - हौज़क़ाज़ी थाना

 




हौज़क़ाज़ी थाना 


हुआ था एक बार मेरा जाना 

हौज़क़ाज़ी थाना 

पड़ा था मुर्गा बनना 

कोतवाल के कहने पर 

रोया था अपनी क़िस्मत पर 

टूटी उस गुल्लक पर 

जिसका इल्ज़ाम लगा था मेरे सर 

लेकिन मुझे मेरी चरखी की क़सम 

तोड़ी नहीं थी वो गुल्लक मैंने 

करी थी  किसी ने राजनीति मेरे साथ 

धर कर झूठा इल्ज़ाम मुझ पर 

उस हादिसे के बाद 

छोड़ दिया था गुल्लक रखना 

और गुल्लक में पैसे भरना।  


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Tuesday, May 2, 2023

लघुकथा - एक दो बूँद

 

लघुकथा - एक दो बूँद


उस शाम न चाहते हुए भी मुझे उनकी टोली में शामिल होना पड़ा।  यूँ तो वे सब शरीफ़ इंसान थे सिवाय इसके कि सभी  दारूबाज़ थे।  वैसे तो अपनी नई नौकरी की ख़ुशी में मैंने सबको मिठाई खिला दी थी लेकिन शराबी टोली की दावत बिना दारू के पूरी नहीं हो सकती थी। 

ख़ैर , दारू का दौर शुरू हुआ।  एक साहब ने बोतल खोली और नाप तोल कर सबके लिए पैग बना कर बोले - 


"देख लो भाई लोगो , सब बराबर है ना ?"


टोली के दूसरे साथी  ने गिद्ध  सी  नज़र से अपने पैग  का मुआयना  किया और बोला   -


" कोई बात नहीं यार , एक दो बूँद इधर उधर हो भी गई तो उसका हिसाब कल कर लेंगे। " 


उसके इस जुमले पर बाक़ी लोग मुस्कुराएँ लेकिन उनके इस हिसाब - किताब पर मैं चाह कर भी मुस्कुरा नहीं सका। 



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस