Monday, December 26, 2022

गीत - कोई ग़ुस्ताख़ी न हो मेरे वतन की शान में

 कोई ग़ुस्ताख़ी न हो   मेरे वतन   की शान में 

हिन्द का वासी हूँ मैं , रहता हूँ हिन्दोस्तान में 


भूल से भी जब कभी दुश्मन इधर को आएगा 

रोएगा,पछताएगा , वो मुँह की अपनी खाएगा

जीते जी अपने कोई भी इसको छू न  पाएगा   


है बसा   हिन्दोस्तां   मेरा ये   मेरी   जान में  


याद हम को जब शहीदों की हमारी आएगी 

लाख रोकेंगे मगर ये आँख  भर  ही जाएगी 

गीत मेरे ही वतन के हर ज़बां फिर  गाएगी 


तुम भी अपना स्वर मिला लो आज इस आह्वान में 


फूल इसके बाग़- सा अब और खिल सकता नहीं 

प्यार इस जैसा कही पर और मिल   सकता नहीं 

बात जो कह दे कभी ये उस से हिल सकता नहीं 


झूम  ऐ  मेरे  तिरंगे   अपनी  आन  और बान में   






कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

गीत - मैं एक समुन्दर रीता हूँ

 

मैं एक समुन्दर रीता हूँ 

हूँ तो समय पर बीता हूँ  


बिन मोल  यहाँ लुटता हूँ  मैं 

इक दीपक - सा जलता हूँ मैं  

मेरे  अंतस  की  थाह   नहीं 

मैं सब के बस की राह नहीं 


मैं अन्धकार का सूरज हूँ 

मैं रोज़ रौशनी   पीता हूँ 


मैं  बिखरा इक अफसाना - सा 

दिल उजड़ा इक  वीराना - सा 

अब  ढलती  हुई   जवानी   है 

आँसू   की वही    कहानी   है 


इस दिल में लाखों ज़ख़्म मेरे 

मैं  पल पल जिनको  सीता हूँ 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Friday, December 23, 2022

लघु कथा - ढलती धूप



 ढलती धूप 


मोनू  यह  सोच कर ही परेशान था  कि  अब  उसे   8२  साल की उस बुढ़िया को  उठा कर उसके पलंग तक ले जाना होगा।  बुढ़िया कोई ग़ैर नहीं उसकी अपनी दादी थी और  उसके ६२ वर्षीय पिता में अब इतना दम  नहीं रहा था कि वह अपनी माँ को  उठा पाते। 


पिता निर्देश दे रहे थे - मोनू , अपनी दादी को  उठा कर उनके बिस्तर पर लिटा दे।  धूप  ढलने ही वाली है। 

" पापा , ये रोज़ रोज़ का जंजाल मुझसे नहीं होगा , पहले धूप के लिए आँगन में लिटाओ फिर भीतर ले जाओ।  "

" अरे , बेटा   कैसी  बात कर रहा है ,  सामने वाले मकान में गुलाठी साहब की माँ को देख।  पूरा परिवार उनकी सेवा में लगा रहता है। "

"  हाँ , पूरा परिवार लगा रहता है उनका क्योंकि गुलाठी साहब की माँ  की ६० हज़ार रुपये महाना पेंशन आती है। 


बेटे का जवाब सुन कर पिता जी मौन थे और ढलती धूप में बैठी दादी की  आँखों में थे आँसू । 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, December 22, 2022

लघुकथा - ऑक्सीजन

 


 ऑक्सीजन




एक जंगल ने दूसरे जंगल से कहा :


- "अरे , तुम अभी तक ज़िंदा हो , तुम्हारे पेड़ों का  टेंडर तो पिछले महीने ही खुल गया था। "

- "टेंडर तो खुल गया था , लेकिन पेड़ों को काटने अभी तक कोई नहीं आया।  लगता है टेंडर कैंसिल हो गया है। " 

-" टेंडर खुलने  के  बाद कैंसिल , लगता है कोई नया घोटाला है।" 

-" नहीं , घोटाला कोई नहीं , सुनने में आया है कि मृत्यु लोक में ऑक्सीजन की भारी कमी हो गयी है , इसीलिए  फ़िलहाल पेड़ नहीं कटेंगे।" 

-" चलो , मनुष्य को कुछ तो सद्बुद्धि आई।" 

- "हाँ  भाई ,  इस मृत्यु लोक में ऑक्सीजन सप्लाई करने के लिए हमें कुछ और साल जीवित रहना होगा।"  

-" यह तो बहुत अच्छी ख़बर है ।  आओ , मिलकर ज़िंदगी का गीत गातें हैं। " 


उनकी बाते सुन कर दिल ख़ुश हुआ और  तभी झूमते पेड़ों को छू कर ताज़ा हवा का झोंका मेरी आत्मा में पसर गया। 



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस 

लघुकथा - लॉक डाउन

  


लॉक डाउन


घर में अलसाई पत्नी  को पति प्रेम से सहलाने लगा। 

-  पता नहीं आपको , लॉक डाउन  चल रहा  है ,-  पत्नी ने पति का हाथ झटकते हुए कहा। 

- अरे , लॉक डाउन तो बाहर चल रहा है , घर में तो ओपन है ।  

-  नहीं , घर में भी  लॉक डाउन  है ।    

- अच्छा ,  घर के लॉक डाउन की गाइडलाइन्स तो सुने ।    

- आप खाना बना सकते हैं ,झाड़ू -पौंचा कर सकते हैं , कपडे धो सकते हैं और काम करते करते थक जाये तो मुझसे    दो गज की दूरी पर सो सकते हैं। 


 निराश पति  बंद खिड़की खोल बाहर झाँकने लगा। उसे यह देख कर आश्चर्य  हुआ कि सामने वाले फ़्लैट की मुंडेर पर बैठा कोइलों  का एक जोड़ा मधुर आवाज़ में कोई प्रेम गीत गा  रहा था। 





लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


Wednesday, December 21, 2022

लघुकथा - बजट


 बजट 


"10,000/ रुपए राकेश को भी देने है " , मैंने पत्नी को महीने का बजट समझाते हुए बताया। 


" राकेश को क्यों देने हैं ? उस से भी उधार ले रखा है क्या ?


" उधार नहीं ले रखा ,  तुम्हे पता है न ये जॉब उसी की सिफ़ारिश  से मिला है "


" तो फिर , क्या जॉब दिलाने का कमीशन मांग रहा है वो ? "


" हाँ , ऐसा ही समझ लो , अगर नहीं दूँगा  तो जॉब किसी दूसरे को मिल जाएगा  "


" राकेश आपका सालो पुराना दोस्त है , फिर भी यह सब ..."


"  तुम नहीं समझोगी , आजकल दोस्ती से बड़ा पैसा है।  वो ज़माना चला गया जब लोग दोस्ती में अपनी ज़िंदगी लुटा देते थे "


पत्नी ने एक गहरी साँस ली  और बजट के पर्चे का पुनः अवलोकन करने लगी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - जन गण मन ....


 जन गण  मन  ....


किसी भी राष्ट्र का राष्ट्र गान उस राष्ट्र के गौरव का प्रतीक होता है। इस दिशा में भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने महत्त्वपूर्ण क़दम उठाया।  अब सिनेमा घरों में  फ़िल्म  के आरम्भ होने से  पूर्व राष्ट्र गान बड़े परदे पर गाया जाता है और सभी दर्शक खड़े हो कर इसको गाते हैं।  ऐसे ही एक अवसर पर फ़िल्म शुरू होने से पहले राष्ट्र गान के लिए सभी खड़े हो गए लेकिन मेरे बराबर वाली सीट पर बैठा  प्रेमी युगल अपनी  सीट पर ही बैठा  रहा।  मुझे ये सरासर राष्ट्र - गान की तौहीन लगी और राष्ट्र गान समाप्त होने पर मैंने उनसे  पूछा - क्या मैं जान सकता हूँ कि राष्ट गान के लिए आप अपने स्थान  पर खड़े क्यों नहीं हुए ? 

युवक ने तपाक से जवाब दिया -  "यह कोई स्कूल नहीं हैं।  हम यहाँ फ़िल्म देखने और एन्जॉय करने आएँ हैं। "

उसका जवाब सुन कर मैं तिलमिला उठा और न चाहते हुए भी मेरे मुँह से निकल पड़ा - "ओह , तो जनाब के लिए प्रेम ज़्यादा ज़रूरी हैं  लेकिन जो अपने देश से प्रेम नहीं कर सकता वो और किसी से क्या प्रेम करेगा ? जनाब का प्रेम एक छलावा हैं और कुछ भी नहीं.....


लेखकइन्दुकांत आंगिरस   

लघुकथा - कागा और अतिथि


कागा  और  अतिथि



 आज सुबह सुबह जब छत की मुंडेर पर कागा  काँव काँव  बोलने लगा तो मैंने पत्नी से कहा - " लगता है आज कोई अतिथि आएगा  "

- "आपको मालूम है कि जब से आप रिटायर हुए है और जब से आपके पैसे ख़त्म हो गए हैं तब से कोई रिश्तेदार इधर झांकता भी नहीं।  बेटे - बहू विदेश में बैठे हैं , वो तो उड़ के आने से रहे।  " - पत्नी ने मेरे वक्तव्य पर लम्बी टिपण्णी करी।  मैं कुछ पल के लिए ख़ामोश हो गया कि तभी कागा की काँव काँव  दोबारा और भी ऊँची और स्पष्ट।  

" सुना तुमने , आज ज़रूर कोई अतिथि आएगा " - मैंने विशवास भरे स्वर  में कहा। 

"  आप कौन से ज़माने में जी रहें हैं।  २१ वी सदी है ये।  आदमी चाँद पर जा पहुँचा है  और आप अभी तक कागा की काँव काँव और अतिथि की रट लगाए बैठे हैं।  "   

अभी पत्नी  ने बात ख़त्म ही करी थी कि उसका  फ़ोन घनघना उठा।  आई थी ख़ुशख़बरी  विदेश से।  बेटी के बिटिया हुई थी।  पत्नी नानी और मैं नाना बन गया था। 

कागा की काँव काँव थी सच्ची।  नया अतिथि आया था  अपने ही परिवार में , चाहे  हज़ारों मील दूर ही सही।



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस   


Sunday, December 18, 2022

कहानी - दूसरी औरत

 दूसरी औरत


बचपन कभी लौट कर नहीं आता लेकिन बचपन की यादें हमे ज़िंदगी भर सताती रहती हैं। वे भी क्या दिन थे , न कोई फ़िक्र न कोई बोझ , उन दिनों स्कूल का बस्ता भी हल्का -फुल्का ही होता था। अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में अपने मामू के यहाँ चला जाता , जो पुलिस में इंस्पेक्टर थे। लगभग हर साल उनका तबादला होता रहता और इस बहाने मुझे नए - नए कस्बों या शहरों में घूमने को मिलता। मेरी ख़ूब आवभगत होती , पुलिस की जीप में घूमता और ख़ुद को किसी इंस्पेक्टर से कम न समझता। दूध - मलाई और देसी घी ख़ूब मिलता और अक्सर उनके यहाँ बिताई एक महीने की छुट्टी में मेरा वज़न बढ़ जाता।

मामू के दो बेटे मेरी हमउम्र थे। बड़े का नाम नरेंद्र उर्फ़ मुन्नू और छोटे का नाम सुरेंद्र उर्फ़ चुन्नू । चुन्नू कुछ कम-दिमाग़ था लेकिन मुन्नू उतना ही शातिर और अक़्लमंद। मुन्नू अपने को किसी दरोगा से कम नहीं समझता। मामू की रोयलनफील्ड पर मुझे बिठा कर शहर की ख़ूब सैर कराता। बाज़ार में किसी भी दुकान से कुछ भी मुफ़्त में सौदा -सुल्फ़ लेता। सब उसे इज़्ज़त देते और मुन्नू भाई कह कर पुकारते तो कुछ लोग उसे छोटे दरोगा कह कर बुलाते । कसी की इतनी मजाल नहीं थी कि उससे सौदा के रूपये मांगता बल्कि सौदे के साथ 10-20 रूपये उसको फ़िल्म देखने के लिए भी दे देते। उसकी उम्र अभी 16 साल की थी लेकिन उसके शौक़ उसकी उम्र से बड़े थे। कस्बों के मामूली सिनेमा हॉल में फ़िल्मे देखना , कभी कभी ताश की बाज़ी , जीते तो वाह वाह और हार गए तो उधार , किसी की मजाल न थी कि उससे जुए के हार के रुपएवसूल करता। फ़िल्मों के अलावा नौटंकी , नुमाइश और शाम होते होते थोड़ी शराब।

शराब के दो घूँट अंदर जाते ही मुजरे की राह। रंगीन शाम का रंगीन नज़ारा , तबले की थाप और सारंगी की आवाज़ फ़िज़ा में घुलने लगती। बेला , चमेली के फूल नर्तकी के गजरे से झरते रहते। कमरे में एक मदहोशी पसर जाती। मदिरा की महक और सिगरेट का धुआं वाह.. वाह.. के शोर में लिप्त रहता। हवा में उछलते फिकरे - क्या बात है मुन्नी बाई....ज़ोर बलम न कीजो मुझपे...मैं हूँ तुमरी पुजारिन... बाहँ पकड़ न लीजो मोरी .. मैं हूँ तुमरी पुजारिन। मुजरा ख़त्म होने के बार मुन्नू नचनिया के शयनकक्ष में खिसक जाता और में बैठक मैं जगमगाते फ़ानूसों की रौशनी में खो जाता। उनसे छनती रौशनी दीवारों पर अप्सराओं के चित्र उकेरती। ऐसा आभास होता मानो मैं किस इंद्रसभा में बैठा हूँ।

काफ़ी देर बाद मुन्नू नचनिया के शयनकक्ष से बाहर आता और रात के अँधेरे को चीरते हुए हम अपने घर लौट जाते। घर में देर से पहुँचने का डर हमे नहीं था क्योंकि मामू अक्सर दौरे पर होते और मामी तब तक अक्सर सो रही होती। हाँ , जब मामू शहर में होते तो मुन्नू शाम ढले ही घर आ जाता। मामी को सब दरोगन कहते और मामी इस लफ़्ज़ के नशे में डूबी रहती। उसे भी इस बात की सुध नहीं रहती कि उसके बच्चे उसके हाथ से निकल रहे हैं ।


उस दिन मामू कोतवाली में हाज़िर थे , सभी सिपाही और हवलदार चुस्त दीखते , इधर से उधर दौड़ते - फिरते ,

कोतवाल साहिब को सभी मक्खन लगा रहे होते। तभी एक ग़रीब औरत रोटी - बिलखती थाने में घुसी ,उसके साथ

उसका बेटा भी था जिसकी उम्र लगभग तीन साल रही होगी। कोतवाल साहब को देखते ही वह ज़ार - ज़ार रोने लगी -

" हजूर , मुझे बचा लीजिये , मेरा सब कुछ लुट गया है "

" रोना बंद कर और ठीक से बता , क्या हुआ तेरे साथ ";- कोतवाल ने झिडकते हुए कहा।


" हजूर मेरे शौहर ने मुझे ,मेरे बच्चे समेत घर ने निकाल दिया है "

"क्यों निकाल दिया तुझे ? "

"हजूर , दूसरी औरत को घर ले आया है , अब आप ही बताये इस भरी दुनिया में इस बच्चे को लेकर कहाँ जाऊँ ?"

" पर तुम्हारे मज़हब में तो चार औरते रखना जायज़ है "

" जी जनाब ,पर उसने उससे निकाह नहीं किया है , बल्कि ऐसे ही उठा लाया है और मुझे घर से निकाल फैका है। कुछ

कीजिए हजूर ,मैं ….शौहर के रहते बेवा की ज़िंदगी नहीं जी सकती "

"हूँ ...कोतवाल ने लम्बी साँस खींच कर हवलदार को तलब किया - रंग बहादुर , अभी उठा के ला इसके शौहर को "

रंग बहादुर कोतवाल के हुक्म की तामील करने निकल पड़ा। उधर कोतवाली के पीछे ही घर के दरवाज़े से दो शातिर आँखें झाँक रही थी, मुन्नू की शातिर और कामुक आँखें उस औरत का मुहायना कर रही थी। उसके दिल में ज़रूर उस औरत को पाने की कामना जाग उठी होगी , औरत उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी थी। कुछ ही वक़्त गुज़रा होगा कि रंग बहादुर उस औरत के शौहर को उठा कर ले आया था।

उस दुबले - पतले इंसान को देखकर कोतवाल को भी कुछ हैरानी हुई। यूनुस उम्र में भी उस औरत से कुछ बड़ा ही लग रहा था , चेहरे पर हलकी सी ढाढी , पिचके गाल और पके हुए बाल। कोतवाल को लगा कि अगर वो उसे एक झापड़ रसीद कर दे तो शायद वही ढेर हो जायेगा यूनुस। उन्हें कुछ आश्चर्य भी हुआ कि कैसे एक फटीचर सा आदमी दो दो औरतों को पालने की सोच रहा है। कोतवाल साहिब ने उसे ज़ोर से हड़काते हुए पूछा -

“क्या नाम है तेरा “?

“यूनुस , हुज़ूर “ ।

“ये औरत तेरी बीबी है “ ?

“ जी , हुज़ूर ..”

“और ये औलाद भी तेरी है “? कोतवाल ने लड़के की तरफ़ इशारा करके पूछा।

“ जी हुज़ूर “ ।

“ तू दूसरी औरत को घर ले आया और अपनी बीबी को घर से निकाल रहा है “ ?

“जी नहीं हुज़ूर , मैं तो ...मैं ....”

“ क्या मैं..मैं लगा रखी है “

“ हुज़ूर मैंने इसे घर से नहीं निकाला , मैं तो इसे भी रखने को तैयार हूँ “।


“ क्या काम करता है ?”


“ कुछ नहीं हुज़ूर “

“ कुछ नहीं , तो फिर दो दो औरतों को खिलायेगा कहाँ से “ ?

“ हुज़ूर , मैं नहीं , ये मुझे खिलाएंगी “।

“ मतलब ....? “

“ मतलब यही हुज़ूर अब इसकी अकेली कमाई से मेरे घर का खर्च नहीं चलता , इसीलिए मैं दूसरी औरत को घर लाया हूँ। पर ये समझती ही नहीं है , कहती है या तो वो रहेगी या फिर मैं “।

“और अगर दो की कमाई से भी तेरे घर का खर्च नहीं चला तो तीसरी उठा लाएगा ?”

“नहीं हुज़ूर , अभी 5-7 साल इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। सलमा अभी जवान है , खूब डटकर काम करेगी “।

“और बाद में …..”

तभी कोतवाल साहब का फोन खनखनाया - “ यस सर , मैं अभी हाज़िर होता हूँ , आधे घंटे में “। एस पी साहिब का

बुलावा था , कोतवाल को जाना लाज़मी था। उन्होंने हड़काते हुए यूनुस से कहा -“ इसे अपने साथ घर लेकर जा , और अगर कोई शिकायत सुनने को मिली तो कुटूंगा बहुत और जेल में सड़ा दूंगा “।

फिर उस औरत को मुखातिब होकर बोले – “ जाओ इसके साथ घर में और एडजस्ट करके रहो “।

दरवाज़े से लगी दोनों आँखें एक बार फिर से चमकी और ग़ायब हो गई। यूनुस की बीबी मन मारकर अपने शौहर के साथ चल पड़ी। वह बड़बड़ाती हुई जा रही थी। गालियाँ किस को निकाल रही थी , समझना मुश्किल था , शायद सभी को..........


*****


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस


कहानी - लेडीज़ टेलर

 लेडीज़ टेलर 


लेडीज़ टेलर का अर्थ यह नहीं कि दरज़ी कोई महिला होगी बल्कि एक लेडीज़ टेलर वह होता है जो महिलाओं के कपडे सीता है। यूँ तो बदलते ज़माने के साथ आजकल रेडीमेड कपड़ें पहनने का चलन है और ख़ास तौर से युवा पीढ़ी रेडीमेड कपडे पहनती हैं विशेषरूप से जींस, टीशर्ट  और टॉप्स।   जिस तरह से घरों में खाना बनाने का कार्य अक्सर महिलाएँ  ही करती हैं लेकिन रेस्टोरेंट्स और होटल्स में  शेफ़ अक्सर पुरुष ही होते हैं उसी तरह लेडीज़ टेलर भी अक्सर पुरुष ही होते  हैं।  आप सभी ने लेडीज़ टेलर से सम्बंधित बहुत से वीडियोस यूट्यूब पर ज़रूर देखे होंगे और उन वीडियोस ने आपको ज़रूर गुदगुदाया होगा लेकिन आज जिस लेडीज़ टेलर की कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ उसे सुन कर  संभव है कि आप लेडीज़ टेलर बनने की आरज़ू कर बैठे , तो दिल थाम के पढ़िए अफ़लातून लेडीज़ टेलर की  अफ़लातून कहानी।  


अफ़लातून लेडीज़ टेलर की उम्र लगभग ४५ साल , क़द दरम्याना , रंग गोरा , पके  हुए रंगीन बाल , कमान - सी भौएँ , चश्मे से  झलकती उल्लू-सी आँखें , ३६० डिग्री का मुआयना करती। उस छोटे से  कस्बे में अफ़लातून की छोटी - सी दुकान थी जिसमे उसकी पैरोंवाली सिलाई मशीन का बड़ा पहिया कभी कभी घूमने लगता और उस पहिये के साथ साथ उसकी ज़िंदगी के क़िस्से।  हाँ , प्रेम भरे , रंगीले क़िस्से। जब दो घूँट सुरा दरज़ी के गले से उतर जाती तो वह ऐसे मज़ेदार क़िस्से सुनाता कि दिल हाय हाय कर बैठता , सुनने वाले कभी अपने दिल को थामते तो कभी जिगर को।


महिलाओं के कपडे सीने में उसे माहरत थी और विशेषरूप से ब्लाउज़ , ब्लाउज़ के डिज़ाइन उसके दिमाग़ में महफूज़ रहते।  एक से एक बेहतरीन ब्लाउज़ , बाज़ार में चल रहे फैशन के ब्लाउज़ तो वो बखूबी बना ही लेता , उसके अलावा नए नए ब्लाउज़ के डिज़ाइन ईजाद करने में लगा रहता।  दुकान की  दीवारों पर अलग अलग डिज़ाइन वाले ब्लाउज़ पहने महिलाओं के पोस्टर , ख़ूबसूरत दिलों को लुभाते पोस्टर। उन पोस्टरों को अपने सीने से लिपटाती बेज़ान  दीवारें  भी  कभी इतराती तो कभी शर्माती।

यह वो ज़माना था जब औरतो ने  घर से निकलना शुरू किया ही था और स्कूलो और दफ़्तरों  में काम करना शुरू कर दिया था। काम - काजी महिलाओं के लिए ज़रूरी हो गया कि वे सज-धज कर घरों से निकले। उन्हें शायद इस बात का इल्म हो भी या नहीं भी कि राह में कितने शिकारी जाल बिछाये बैठे हैं और खुली धूप में परोसते रहते हैं दाना,, जिसे चुगने को  हर चिड़िया रहें  ललायित।


जिस तरह एक डॉक्टर के गले स्टेथोस्कोप शोभा देता है  उसी तरह एक दरज़ी के गले  में इंचीटेप। अफ़लातून  के  गले में भी एक  इंचीटेप और कान में एक पेंसिल अटकी रहती।  लेकिन इंचीटेप और पेंसिल का इस्तेमाल वह सिर्फ़  दिखावे के लिए करता।  असल में औरतो को देखते ही उनके ब्लाउज़ का नाप उसके दिमाग़ में फिट हो जाता , उनके उरोजों की गोलाई , कसावट , ढिलाई ,यहाँ तक कि कुचक का आयतन भी वह एक नज़र में नाप लेता। ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं कि उसके द्वारा सिले गए ब्लाउज़ से कोई औरत संतुष्ट न हुई हो।  

लेकिन एक बार एक ब्लाउज़ के माप में अफ़लातून भी गचका खा गए। सुडौल कंधे वाली उस आसमानी परी के ब्लाउज़ का माप उसने लिया तो उसे इंचीटेप की ज़रूरत पड़ी और कॉपी  पेंसिल की भी।आसमानी परी के सीने की पहाड़ियाँ चट्टान - सी सख़्त थी , धूप के स्पर्श से उनका रंग बदलता , कभी सुरमई , कभी नीली तो कभी सुनहरी रंग की ये पहाड़ियाँ  दरज़ी  की आँखों से हो कर उसके सीने में उतर गयी।  रंगो के साथ साथ उनकी गहराई , उनकी गोलाई भी बदलती।  सुबह का रंग शाम  को फीका   लगता।  सुबह की गोलाई दोपहर तक बढ़ जाती और शांम होते होते और अधिक गहरा जाती। 

किसी तरह से कड़ी मेहनत कर के दरज़ी ने ब्लाउज़ तो बना डाला लेकिन  फिटिंग बराबर नहीं  थी  और होती भी कैसे , हसीना की साँसों के साथ साथ पहाड़ियों का उठना - गिरना।  ब्लाउज़ कभी इधर से ढीला तो कभी उधर से टाइट।  दरज़ी दोबारा नाप लेता और दोबारा ब्लाउज़ बनाता लेकिन हर बार कोई न कोई कमी रह जाती।  दरज़ी इस ब्लाउज़ में ऐसा फँसा  कि उसका सारा वक़्त इसी में ज़ाया  होने लगा।  इसके चलते वह नया काम पकड़ने से इंकार करने लगा और धीरे धीरे उसके सब ग्रहाक टूट गएँ ।  अब वह इकलौते ग्राहक का इकलौता दुकानदार था। सुबह से शाम और शाम से सुबह हो जाती लेकिन ब्लाउज़ की सिलवटे न निकली।  

दरज़ी इससे पहले भी कई बार  पहाड़ियों पर चढ़ा - उतरा था  लेकिन इन पहाड़ियों पर चढ़ते - उतरते उसे थकान होने लगी।   धीरे धीरे उसके तलुए घिसने लगे , आँखें धुंधलाने लगी , कमर कमान की तरह टेढ़ी हो गयी  लेकिन उस आसमानी परी का वो आसमानी ब्लाउज़ न कभी पूरा होना था न कभी हुआ ।


शाम ढलते ढलते , पहाड़ियों से उतरती धूप की किरणें  थामे वो आसमानी परी आज भी कभी कभी आती है लेकिन दुकान के  आधे झुके  शटर को देख लौट जाती है आसमान में,  शायद किसी दूसरे लेडीज टेलर की तलाश में...... …………….

                                                                        *****


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 



 

Saturday, December 10, 2022

लघुकथा - मापदंड

 लघुकथा  - मापदंड 



सेठ जी ने अपनी आलिशान ऊँची इमारत की तरफ देखते हुए मुझसे कहा - -


" शहर में इतनी ऊँची इमारत दूसरी नहीं है। देखने के लिए पूरी गर्दन ऊपर उठानी पड़ती है ,  आकाश को छू रही है ,आकाश को "।


- "सेठ जी , मैं इसकी ऊँचाई यहाँ खड़े खड़े नाप सकता हूँ ।"


- "अच्छा , बताओ इसकी ऊँचाई ,हम भी देखे आपका मापदंड। "


- "सबसे ऊपर की मंज़िल पर वो मज़दूर दिख रहा है ?" मैंने सेठ जी से पूछा ।


- " हाँ ,हाँ ,देखो बिलकुल बौना लग रहा है " सेठ जी ने हँसते हुए कहा ।


- "बस समझ लीजिये आपकी इमारत की ऊँचाई उस बौने के कद से ज़्यादा नहीं है " मैंने मुस्कुरा कर कहा ।


सेठ ने एक बार उस मज़दूर को देखा ,फिर मुझे देखा और मेरे मापदंड के फॉर्मूले पर अपना सिर खुजलाने लगें।




लेखक  - इन्दुकांत आंगिरस


कहानी - पेंशन

कहानीपेंशन


वह  इतने ज़ोर से चिल्लाई थी कि मैं सकपका गया । अपने जवान बेटे को गालियाँ  दे रही थी और उसका वो शरीफ़ बेटा भी आज गर्म मिज़ाज़ में  था और अपनी अम्मी पर चिल्ला रहा था । दरवाज़ा पर गिरा पर्दा उनके कमरे से उठती  आवाज़ों को नहीं रोक पा रहा था ।मैं  उनकी हैदराबादी झगड़ालू  ज़बान का लुत्फ़ भी उठा रहा था  और कुढ़ भी रहा था कि मुझे उनकी पूरी बात समझ नहीं आ रही थी । उनकी चीख़ती  हुई आवाज़े ट्रैफिक के शोर को चीरती हुई कभी पूरी तो कभी आधी मेरे कानो के ज़रिये मेरे दिल में  उतरती जा रही थी । मेरी रगों मैं बहते ख़ून की  रफ़्तार बढ़ गयी थी कि तभी दरवाज़े के बाहर लटका पर्दा दरवाज़े के पीछे चला गया और एक भयंकर  आवाज़ के साथ दरवाज़ा बंद कर दिया था रेहाना ने ।अब मैं सिर्फ़ टूटी - फूटी अस्पष्ट आवाज़े सुन पा रहा था । उनके लफ्ज़ अब उस कमरे मैं क़ैद  हो गए थे जिन्हे या तो वो सुन सकते थे या फिर उनका अल्लाह ।


हाँ  , वही अल्लाह जिसने चार बरस पहले रेहाना की ज़िंदगी का दरवाज़ा बड़ी बेरहमी से हमेशा के लिए बंद  कर दिया था । उसके शौहर की एक  साम्प्रदायिक दंगे  में  मौत हो गयी थी । एक बेवा की ज़िंदगी किसी अज़ाब से कम नहीं । उसका शौहर  बस एक दिहाड़ी मज़दूर था तो पेंशन का तो सवाल ही नहीं उठता क्यों कि दिहाड़ी मज़दूर को महाना तन्खॉह नहीं मिलती । उनको दिहाड़ी की हिसाब से मज़दूरी मिलती  अगर महीने में बीस दिन काम किया है तो बीस ही दिन की मज़दूरी मिलेगी ।

रेहाना जवान थी नैन नक्श भी बुरे न थे , किसी पुरुष को आकर्षित करने के लिए उसका सुडौल  बदन ही काफी था । अनपढ़ होना उसकी  नियति नहीं थी , उसके कबाड़ी बाप के पास बच्चे पैदा करने के अलावा कोई काम न था , और उन्हें पैदा करने के बाद वह उन्हें अक्सर भूल जाता था  । बीड़ी के धुएँ में ज़िंदगी की हर फ़िक्र को उड़ाए जाता था । किस तरह  उसकी अम्मी न उसे पाल -पोस कर बड़ा तो कर दिया लेकिन उस पढ़ा नहीं पाई । अम्मी ने वक़्त आने पर उसकी शादी  भी कर दी लेकिन शादी का लम्बा सुख उसकी क़िस्मत  में न था ।


आखिर कुछ  दिनों की मातमपुर्सी के बाद रेहाना ने फ़ैसला किया कि वह घरों में चौका बर्तन और खाना बनाने का काम करेगी।  बुरका पहनकर  जाने से उसे हिन्दू घरों में काम मिलना मुश्किल था ।इसलिए  उसने   आपने बुरका उतारा और बक्से में संभाल  कर रख दिया ।अब इसकी ज़रूरत नहीं थी । हिन्दू घरों में काम पाने के लिए उसने अपना नाम भी बदल लिया और मोहल्ला भी ।


संगीत के सात सुरों  से उसका कोई लेना देना नहीं था लेकिंन संगीता नाम में एक धमक थी सो उसने संगीता नाम की नाम प्लेट अपने गले में लटका ली । स्वादिष्ट खाना बनाने के लिए लिखाई -पढाई की ज़रूरत नहीं । कुछ औरते अपने परिवार में ये सब सीख लती है । संगीता स्वादिष्ट  खाना बनाती थी और माँसाहारी  खाने का तो जवाब ही नहीं । उसके स्वाद खाने की सब तारीफ़ करते विशेष रूप से घर के मर्द ।  खाने की तारीफ़ करते करते उँगलियाँ  चाटने लगते , उनका बस चलता  तो बावर्चिन  की उंगलियन भी चाटने लगते ।अक्सर घरों में काम करने वाली नौकरानियों की उँगलियाँ खुरदरी हो जाती हैं लेकिन खुरदरी उँगलियों का भी एक अलग मज़ा है।

उसने सोचा  था कि किसी तरह घरों में मेहनत -  मज़दूरी   करके  इज़्ज़त  की दो रोटी मिल जाएगी , लेकिन इस देह का क्या करे , इसकी अपनी ज़रूरतें  होती हैं। रेहाना की देह भी हाड -मांस की बनी थी , वसंत की सरगम उसकी रगों को छेड़ती रहती, नागिन -सी काली घटाएँ उसके जवान जिस्म को डसती  रहती , इस नागिन के ज़हर से उसका बदन जलने लगता और वह एक अँगीठी की मानिंद सुलग उठती।


उस दिन बहुत बारिश हो रही थी लेकिन रेहाना का बदन भट्टी की तरह सुलग रहा था। उसके होंठों पर आज शरारत भरी मुस्कान तैर रही थी , फ़िल्मी प्रेम गीत फ़ज़ा में गुनगुना रहे थे कि तभी उसके फ़ोन की घंटी बजी और उसने बिजली की फुर्ती से फ़ोन उठाया -

हेलो , हाँ , कहाँ हो ? "

" यहाँ पहुँच गया हूँ , बस स्टॉप  पर खड़ा हूँ लेकिन बारिश बहुत हो रही है।  बारिश रुकते ही आता हूँ। "

" नहीं , नहीं , बारिश रुकने की इन्तिज़ार मत करो , कोई ऑटो पकड़ कर फ़ौरन  आ जाओ , अच्छा वही रुको , मैं आती हूँ ऑटो लेकर "

उसे डर था कि वह ऑटो का इन्तिज़ार में वक़्त बर्बाद न कर दे और कही उसे ऑटो वाला चक्कर न कटाता रहे  क्योंकि आज उसके लिए एक एक पल क़ीमती था। उसका बेटा  आज स्कूल पिकनिक पर  गया था और शाम से पहले नहीं लौटने वाला था। इसलिए उसने

अफ़रातफ़री  में  एक टूटी छतरी उठाई और एक ऑटो करके अपने यार को लेने निकल पड़ी। १५-२० मिनट में ही वह अपने यार को लेकर वापिस आ गयी थी और अपने घर का दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर लिया था।

" लो पहले कपडे बदल लो , नहीं तो ठण्ड लग जाएगी " - रेहाना ने रमन को  तौलिया पकड़ाते हुए कहा।


रमन तौलिया पकड़ बाथरूम में घुस गया और रेहाना अपनी लटों में उँगलियाँ घुमाते  हुए सोचने लगी  , कितना दिलकश और  बांका है रमन , काश  वह कुंवारा होता तो वह ज़रूर उससे शादी बना लेती।  हालांकि रमन ,रेहाना से उम्र में दस साल बड़ा था। उसके पास एक क़ानूनी बीवी और दो बच्चे थे।  रेहाना से यह उसकी तीसरी  मुलाक़ात थी।  पहली मुलाक़ात विधवा पेंशन के दफ़्तर में हुई थी , रमन ने पेंशन  के दफ़्तर में मुलाज़िम था और उसने रेहाना को पेंशन   दिलवाने में मदद करने का वायदा किया था। उनकी दूसरी मुलाक़ात एक लॉज  में हुई जिसमे  सारे पर्दें गिर चुके थे इसलिए अब उनके बीच औपचारिकता जैसी कोई बात नहीं रह गयी थी।  रेहाना जानती थी कि रमन से उसकी शादी नहीं हो सकती लेकिन फिर भी वह उसे पाने के लिए बेताब रहती थी। बाथरूम से बाहर निकलते ही रेहाना ने उसे एक शेरनी की तरह  दबोच मारा -

" अरे , क्या कर रही हो , रुको तो एक मिनट  "

" मुझे नहीं रुकना , जल्दी करों , बेटा कभी भी लौट सकता है "

" अगर इतना डरती हो तो मुझे बुलाया क्यों था ? "

" तुम समझते नहीं हो , पहले काम कर लो , बातें बाद में करना "

  शेरनी की पकड़ गहराती गयी और शिकारी ख़ुद शिकार हो गया।  घने बादलों में थमा पानी झर झर कर बहने लगा।  बारिश...और बारिश ...और बारिश।  बारिश में देर तलक भीगते रहे थे दो बदन।


- " तुम्हारे लिए एक ख़ुशख़बरी है " रमन ने अपना पसीना  पौंछते हुए कहा। "

- " क्या ख़ुशखबरी है ? जल्दी बताओ।  तुम्हारी  बीवी मुझे अपनी सौतन बनाने को तैयार हो गयी क्या ?"

- " रेहाना , मैं तुम्हे पहले ही बता चुका हूँ कि यह मुमकिन नहीं। "

 - तो फिर ?

- मैं तुम्हें ' विधवा पेंशन ' दिलाने के लिए अपने बॉस से बात कर आया हूँ।  अगले सोमवार को अपने काग़ज़ात लेकर आ जाना , अल्लाह ने चाहा तो तुम्हारी ' विधवा पेंशन ' तत्काल शुरू हो जाएगी।

- अच्छा , कितनी पेंशन मिलेगी ?

- ३०००/ हर   महीने।

घरों मैं चौका - बर्तन करने के बाद भी रेहाना का हाथ तंग रहता था , ऐसे में हर महीने अगर सरकार से ३०००/  मुफ़्त के मिलेंगे  तो इसमें बुरा क्या है ?वह घर के भाड़े , राशन और लड़के की पढ़ाई का हिसाब - किताब लगाने लगी।

ठीक है , कुछ तो राहत मिलेगी , मैं  इतवार को ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी , मेरे लिए एक होटल बुक कर देना।

- हाँ , होटल बुक कर दूँगा , अपने सब काग़ज़ात लाने मत भूलना।

- नहीं भूलूँगी , सब कुछ ले कर ही आऊँगी। कहकर रेहाना ने फिर रमन को अपनी बाहों मैं लपेट लिया।


अभी तोता -मैना अपनी चौंच भिड़ा ही रहा थे कि दरवाज़ा भड़भड़ा उठा। लड़का दरवाज़े पर अपने पैरों से ठोकर मार रहा था।दोनों ने ख़ुद को संयत किया और रेहाना ने उठ कर दरवाज़ा खोला।  खुले दरवाज़े  से रमन तीर की तरह  निकल गया।  लड़का रमन की एक ही झलक देख पाया था।  बेतरतीब बिस्तर को देख कर उसका लहू खौल गया और उसने अपनी अम्मी से चीख़ कर पूछा था -

" अम्मी , कौन था ये सूअर की औलाद ओर हमारे घर में क्यों आया था ? "

" कोई नहीं बेटा , वो पेंशन अधिकारी था और पेंशन के काग़ज़ात चेक करने आया था "


१४ साल का हमीद अब बच्चा नहीं था। बिस्तर की बेतरतीब सिलवटों का मतलब ख़ूब समझता था।  वह ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगा और उसकी माँ उसे गालियाँ सुना रही थी। कुछ देर बाद हामिद तमतमाता हुआ अपने दबड़े में से बाहर निकल सूनी झील की ओर बढ़ गया। उस रात वो तन्हा देर रात तक झील के किनारे  बैठा रहा था।  आसमान में सितारें चमक उठे लेकिन उनमे भी वो अपने अब्बू को नहीं ढूंढ पाया। उसके लिए यह ऐसी रात थी जिसका सवेरा शायद कभी न निकले। वह धीरे धीरे झील के गहरे पानी में उतरने लगा।  उसको तैरना तो आता था लेकिन आज वह डूब जाना चाहता था सो धीरे धीरे उसने ख़ुद को झील में डुबो दिया।

 

अगली सुबह झील की सतह पर तैरती हामिद की लाश  की  ख़बर बस्ती में पानी  की तरह फ़ैल गयी।  रेहाना ने अपनी छाती पीट पीट करमातमपुर्सी करी। आसमान की ओर मुँह कर ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगी - "या अल्लाह , तो मुझे ही उठा लेता। " लेकिन अल्लाह अपना काम बख़ूबी जानता है।  वह अपने पास वक़्त से पहले उन्हीं को बुलाता है जिन्हें वो प्यार करता है।

 

सोमवार को हामिद गुज़रा था। अगले कुछ दिनों तक रोते रोते  रेहाना के आँसू सूख गए थे ओर अब उस सहरा में उसके तमाम आँसू  ज़ज़्ब हो चुके थे।  अगले इतवार वायदे के मुताबिक़ रेहाना रमन से मिलने चली गयी। पेंशन से सम्बंधित सभी काग़ज़ात उसने संभाल कर रख लिए थे। उसके विचारों में उथल -पुथल मची हुई थी। इसी राह पर वह कई बार अपने शौहर के साथ घूमी थी लेकिन आज उसके साथ उसका

उसका शौहर नहीं बल्कि उसका डेथ सर्टिफिकेट था , जिसके बिना पर रमन उसे पेंशन दिलवाने वाला था।

वह सही वक़्त पर होटल पहुँच गयी ओर चेक इन भी कर लिया। अभी शाम के सात ही बजे थे।  रमन वायदे के मुताबिक़ आठ बजे आने वाला था। उसे मालूम है कि रमन वक़्त का पाबन्द है सो सही समय पर पहुँच जायेगा।  वह नहा - धो कर उसका इन्तिज़ार करने लगी।

 

आठ बजते ही रूम की घंटी  बजी।  उसने फुर्ती से दरवाज़ा खोला।  रमन के साथ एक आदमी और  था , दोनों शराब और कबाब लेकर आये थे।  

"ये मेरे बॉस  है रेहाना , यही तुम्हारी पेंशन बनवाएँगे " रमन ने अपने बॉस का परिचय करवाया।

" सलाम वालेकुम  " रेहाना ने अदब से बॉस को सलाम किया। जवाब में बॉस ने मुस्कुरा कर सर हिला भर दिया।

- "अपने काग़ज़ात तो दिखाओ , बॉस को "

- रेहाना ने अपने काग़ज़ बॉस की ओर बढ़ा दिए।

बॉस न एक नज़र काग़ज़ातों पर दौड़ाई ओर रमन से कहा - इनकी एक ज़ेरॉक्स कॉपी करा लाओ अभी।

कमरे से रमन के जाते ही बॉस ने भूखी  नज़रों से रेहाना  के सुडौल  जिस्म को निहारा ओर पलंग पर बैठते हुए इत्मीननान से बोला-

देखों , रेहाना , तुम्हारी पेंशन तो शुरू हो जाएगी पर बदले में हमे क्या मिलेगा ?

- रेहाना  ने एक पल चुप रह कर धीरे से पूछा - क्या चाहिए आपको ?

- हर महीने यहाँ आकर  एक बार हमे ख़ुश कर दिया करो , आने - जाने का भाड़ा ओर होटल का खर्च हम ही देंगें।

एक लम्बी चुप्पी के बाद रेहाना के मुँह  से बस इतना निकला - जी

बॉस ने रेहाना का हाथ अपने हाथों में लिया ओर उसके क़रीब खिसक गए।

- रमन ज़ेरॉक्स करा कर अभी आने वाले होंगे -  रेहाना ने हिचकते हुए कहा।

- ज़ेरॉक्स की सब दुकाने बंद है , वह अब सुबह ही आएगा।, उसके साथ अपने काग़ज़ात लेकर मेरे दफ़्तर आ जाना - कहते हुए बॉस ने रेहाना को अपनी बाहों में भर लिया।

 

 रेहाना अपनी आँखें बंद कर एक लम्बी काली रात के दर्द को किस्तों में जीती रही। 




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


लघुकथा - शगुन के रुपए

 लघुकथा  - शगुन के रुपए


संगीत के कार्यक्रम के उपरान्त  बाहर पंडाल में प्रीतिभोज का आयोजन था। अभी अंतिम कार्यक्रम चल ही रहा था कि दर्शक बाहर पंडाल में एकत्रित होने लगे। सभी को भोजन की प्रतीक्षा थी और भोजन के आते ही एकत्रित भीड़ भोजन पर टूट पड़ी। किसी के हाथ रोटी , किसी के हाथ सब्ज़ी तो किसी के हाथ सिर्फ़ थाली लगी। मेरे एक मित्र  भी भीड़ में घुसकर भोजन ले आये थे। उनके मुखमण्डल पर पसीने की बूँदें छलछला रही थी और उनका चेहरा एक विजयी योद्धा की तरह  दमक रहा था।  मुझ पर और मेरी खाली थाली पर उनकी निगाह पड़ी तो एक पल को ठिठके ,फिर स्नेह से मुझे अपने साथ खाने की दावत दी लेकिन इतनी छीना- झपटी  देख कर मेरा मन ही उचट गया था।

- खाइये  ,आप खाइये , यह सब देख कर मेरी तो भूख ही मर गयी है - मैंने सकुचाते हुए मित्र से कहा।

- अरे , छोड़िये जनाब , आजकल ऐसे ही चलता है और हमने कौन से यहाँ शगुन के रुपए दिए हैं - रोटी का अगला कौर अपने मुँह में ठूसते हुए मित्र मुझे समझाने लगे और मैं  ठसाठस भरे  उनके मुँह को देखता रहा।


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - घोंसला

 लघुकथा  - घोंसला


नए घर के रौशनदान की सफ़ाई करते करते मज़दूर अचानक रुक गया था।


- साहिब , यहाँ तो चिड़िया का घोंसला है , क्या करें ?


- अरे ,उठा कर फेंक दे घोंसला और क्या करेगा ? साहिब ने झल्ला कर जवाब दिया।


- लेकिन साहिब ,इसमें तो चिड़िया के अंडे हैं।


- अबे तेरी समझ में नहीं आया क्या , फेंक उठा कर घोंसला। विल दे लिव एट अवर कोस्ट ( ये हमारे पैसों पे मौज करेंगें ? ) साहिब ने ज़ोर से मज़दूर को फ़टकारा था।


मज़दूर ने बोझिल मन से वह घोंसला फर्श पर गिरा तो दिया लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि चिड़ियों का जोड़ा साहिब के पैसों पे कैसे मौज कर रहा था ?



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस


लघुकथा - फ़ोन रिचार्ज

लघु कथा - फ़ोन रिचार्ज




ग्राहक- भैया ,20/ का टॉक टाइम रिचार्ज कर दो।


दुकानदार - 20/ के रिचार्ज में टॉक टाइम 15/ रुपए  का ही मिलेगा।


ग्राहक- , 25% कट जायेंगे , यह तो ज़्यादती है , जितना रिचार्ज करा रहे है उतनी ही राशि का टॉक टाइम मिलना चाहिए।


दुकानदार  -  ये कंपनी की प्लान्स हैं , अगर कोई 5000/ का रिचार्ज कराता है तो उसे कम्पनी 50/ रुपए  का अतिरिक्त टॉक टाइम देती है और 20/ का रिचार्ज करने वाले के 5/ रुपए   का टॉक टाइम काट देती है।


ग्राहक- ओह , अब समझा कि किस तरह ग़रीबों के पैसों से ही अमीर और अमीर बनते जा रहे हैं। ठीक है  भैया 20/  रुपए  का रिचार्ज कर दो,  हम अपने बीवी -बच्चों से थोड़ा कम ही बतिया लेंगे।




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस



प्रेम - प्रसंग -कविता - हरे काँच की चूड़ियाँ

 हरे काँच की चूड़ियाँ


तुम्हारी हरे काँच की चूड़ियाँ

आज भी दिल को  याद आती हैं

तड़पते इस दिल को नग़में

भूले - बिसरे सुना जाती हैं,

चूड़ियों की

मधुर झंकार का  

संगीत भी बीत गया

तन्हा दर्द भी रीत गया

कही भी दूर दूर तक

कोई शोर नहीं गूँजता

कौन डस गया झरने की

मीठी कल कल

प्राण गलते रहे जल जल ,

कोई भी लहर

वापिस नहीं आई किनारे से

तकते रहे चाँद हम

रात भर उस किनारे  से ,

चूड़ियों  का मधुर संगीत

अब ढल चुका है

एक शोक गीत में

और यह शोक गीत

अब पसर गया है 

मेरी वीरान आत्मा में ।



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


वसंत का ठहाका - रहगुज़र

 रहगुज़र


गुज़र जाते हैं  मुसाफ़िर मुझ पर

करते हैं  तय अपना सफ़र

कभी कोई तन्हा 

कभी कोई क़ाफ़िला

मेरे सीने पे रख कर क़दम

करता है तय अपना सफ़र

कुछ को मिल जाती हैं  मंज़िले

कुछ भटकते रहते तमाम उम्र

मंज़िले भी तलाशती है दूसरी मंज़िले

पीड़ा का एक अंतहीन सफ़र,

बनती हूँ सबकी हमसफ़र

पर अंत  मैं रह जाती हूँ तन्हा

मैं हूँ एक जागती रहगुज़र

कभी भी ,कोई भी पुकार ले

मैं सदिओं से सोई नहीं हूँ

मुझे तो जागना ही पड़ता है

फिर चाहे वो

रहज़न हो या रहबर।  



कवि  - इन्दुकांत आंगिरस 







Saturday, November 19, 2022

ग़ज़ल - साँसों में कुछ जल रहा है


 साँसों में कुछ जल रहा है 

ग़म का पारा गल रहा है 


देख कर उसकी पलकों को 

सूरज   आँखें   मल रहा है 


उनसे बिछड़ने का लम्हा 

धीरे धीरे   टल   रहा है 


मौत  पड़ने   लगी है गले 

सूरज भी अब ढल रहा है 


एक परिंदा प्रीत का कब से 

इस   सीने   में पल रहा है 


क्या सोच रहा है  ' बशर '

क्यों करवट बदल रहा है ?





शाइर - बशर देहलवी  


गीत - खुले हैं मन के द्वार , उस पार चले आना

 


खुले हैं मन के द्वार , उस पार चले आना 

रोकेगी   मझदार  ,  पर तुम   यार चले आना 


सपनों के  काँवर में  रंग  नये भर  जाना तुम 

धरती की  पलकों पे गीत नया रच जाना तुम 

शबनम के कतरो पे आग नयी धर जाना तुम 


मधुर मधुर है प्यार  , उस पार चले आना 

खुले हैं मन के द्वार......


साँसों  की सरगम से  राग    नया रच जाना तुम 

किशना की मुरली सा साज़ नया बन जाना  तुम 

मीरा के   गीतों  का   राज़ नया   समझाना तुम 


मीरा का मनुहार , उस पार चले आना 

खुले हैं मन के द्वार......


चाँदी  के  पंखों से    तार नये   बुन जाना तुम

साँसों की किरणों से फूल नये  चुन लाना तुम  

अधरों की किसमिस से कर देना मस्ताना तुम 


प्रीत का बंदनहार , उस पार चले आना   

खुले हैं मन के द्वार......




कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


 

ग़ज़ल - हम फ़क़ीरी में दिल लुटाने को

 हम फ़क़ीरी में दिल लुटाने को 

ग़म की दौलत चले कमाने को 


करता है   इश्क़   वो सताने को 

हम भी दिल रखते हैं निशाने को 


संगबारी है    और हम   तन्हा 

क्या ख़बर  हो गयी ज़माने को 


झील ने आँख मूँद ली है अभी 

चाँद निकलेगा क्या नहाने को 


बुझते शोलों को तुम हवा न दो 

राख काफी है दिल जलाने को 


बेसबब दिल में आ के वो बैठा 

उम्र गुज़री    जिसे भुलाने को 


फूल सूखे हुए ही चंद आँसू  

बस यही रह गए बिछाने को 


जाग जाये न    हसरतों अरमां 

चाँद आया था शब्  सुलाने को 


रंग पे आ ही गयी ' बशर ' महफ़िल 

हम जो    आये   ग़ज़ल सुनाने  को 



शाइर - बशर देहलवी  


Friday, November 18, 2022

ग़ज़ल - मुझे ग़म में डूबी कहानी बहुत है



 मुझे ग़म में डूबी  कहानी बहुत है 

मगर आँसुओं से सुनानी बहुत है 


समुन्दर न दरिया मगर इस ज़मी पर 

मैं पानी हूँ   मुझको रवानी बहुत है 


जमा भी करूँ कैसे मैं बिखरे ख़तों को 

मुझे एक   भूली    निशानी    बहुत है 


जला तो दिया है चिराग़ों को हर सू 

मगर रात काली तूफ़ानी बहुत है 


उठाने को दुनिया के लुत्फ़ों करम सब  

' बशर ' चार दिन की जवानी बहुत है  





शाइर - बशर देहलवी  


Thursday, November 17, 2022

ग़ज़ल - इस बज़ाहिर तीरगी से दोस्त घबराना नहीं

 


इस बज़ाहिर तीरगी से दोस्त घबराना नहीं 

इस के पीछे रौशनी है तुम ने पहचाना नहीं 

 

अजनबी   हूँ दो घडी   रहने दो अपने शहर में 

जानता हूँ इस तरफ़ फिर लौट कर आना नहीं 


तश्नगी होटों पे ले कर घूमता हूँ दर - ब - दर 

और मीलों तक नज़र में कोई मयख़ाना नहीं 


हर किसी के साथ हो लेता हूँ अपना जान कर 

और जो कह लो मुझे लेकिन मैं दीवाना नहीं 


ज़िंदगी के साये में पलता रहा फिर भी ' बशर '

ज़िंदगी   भर ज़िंदगी  को मैंने पहचाना नहीं 




शाइर - बशर देहलवी  



लघुकथा - जेबकतरा


जेबकतरा 

 

सूरज  चौंधिया रहा था और बस -स्टैंड पर शेड भी नदारद। लोग पसीने  में नहाये बस की इन्तिज़ार में खड़े थे।  जैसे ही बस आई , भीड़ का एक रेला बस में घुसने के लिए उमड़ पड़ा।  धक्का -मुक्की में लोग चढ़ कम पाएँ  और  बस चल पड़ी। पायदान पर लटके लोग बस में खड़े यात्रियों पर भीतर घुसने के लिए चिल्ला रहे थे।  अभी एक - दो स्टॉप ही गुज़रे थे कि एकाएक किसी की चीख़ गूँज उठी- " हाय रे , मैं तो लुट गया , किस ने मेरी जेब काट ली है।  अरे , अरे , पकड़ो उसे ! वो देखो वो बस से कूद कर भाग रहा है , अरे , कोई पकड़ो उसे , यह तो वही भला आदमी है। "


-" भला आदमी कौन बाबा ? " किसी ने पूछा। 


- अरे भाई , वो ही भला इंसान जिसने बस स्टॉप पर मुझे धूप से बचाने के लिए अपने छाते में आश्रय दिया था। 


बाबा का जवाब  सुन कर सभी यात्री हतप्रभ थे।





लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


Wednesday, November 16, 2022

ग़ज़ल - फिर दिल से उठी लपटें घर को न जला लेना

 फिर दिल से उठी लपटें घर को न जला लेना 

बेहतर है यही इन को दिल ही में दबा लेना 


जब भी तू कभी चाहे जब दिल में तेरे आए

इस पार बुला लेना , उस पार बुला लेना 


है तेरे सिवा    किसका अंदाज़े बयां ऐसा 

इक बात बता देना , इक बात छुपा लेना 


मुमकिन है कि फिर तुझको वो शख़्स न मिल पाए 

बढ़ के तू     गले    उस को इक    बार लगा लेना 


इस दौर    के लोगो ने    सीखा   है हुनर कैसा 

ख़ुद अपनी ही लाशों पे इक दुनिया बसा लेना 


बुझती है अगर शम्मा बुझने दे ' बशर ' उसको 

इन ग़म के अंधेरों से इस दिल को जला लेना 





शाइर - बशर देहलवी  


ग़ज़ल - तीरगी का सफ़र इक परी चाहिए

 तीरगी का सफ़र  इक परी  चाहिए 

जगमगाती   हुई   रौशनी  चाहिए 


दोस्ती भी भली , दुश्मनी भी भली 

हम फकीरों को बस बंदगी चाहिए 


आबलों का सफ़र और घायल जिगर 

चाँदनी    में ढली इक नदी चाहिए 


फूल बन कर खिलूँ  मैं हर इक साँस में

साँस को   प्रेम की   रागिनी चाहिए 


बात सुनने में लगती है कैसी अजब 

ज़िंदगी के लिए    ज़िंदगी चाहिए  


भीड़ है तो ख़ुदाओं की हर सू  मगर 

आदमी को यहाँ आदमी  चाहिए  


उठ रहा है धुआं हर नज़र से यहाँ 

हर नज़र को मगर चाँदनी चाहिए 


नफ़रतों को मिटा दे जो दिल से ' बशर '

आज दिल    को वही सादगी चाहिए 



शाइर - बशर देहलवी  


ग़ज़ल - बस वही इक प्यार का नग़मा पुराना याद है

 

बस वही इक प्यार का नग़मा पुराना याद है 

मेरे    कानों में    वो तेरा   गुनगुनाना याद है 


रात तारों से हुई कुछ देर मेरी गुफ़्तगू

चाँदनी रातों में तेरा झिलमिलाना याद है  


बस यही इस मोड़ पर कल गा रही थी  ज़िंदगी 

मेरे काँधे पर वो तेरा सर झुकाना याद है 


चाँद की बाँहों में जैसे चाँदनी का साज़ हो 

वो तिरा बाँहों में मेरी कसमसाना याद है 


मेरे टूटे दिल से जो निकला था नग़मा हिज्र में 

तेरे अधरों पर उसी का कँपकपाना याद है 


कल ज़मी की कोख से फूटा था फिर चश्मा कोई 

मुझको तेरा बज़्म में वो खिलखिलाना याद है 


हर तरफ़ फैली हुई थी तीरगी जब ऐ ' बशर ' 

उस घडी तिरा नज़र में जगमगाना याद है 



शाइर - बशर देहलवी  


प्रेम - प्रसंग/ 2 - - बुदापैश्त के नाम

 


पुराने  काग़ज़ों में बुदापैश्त के नाम लिखा  वो गीत मिल गया जो मैंने अपने बुदापैश्त  प्रवास ( सं २००० )  के दौरान  लिखा था।  यूँ तो यह एक साधारण सा  गीत है लेकिन मेरी यादों से जुड़ा है , इसीलिए मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।


 बुदापैश्त के नाम 


सुनो ,नगरी है ये प्यार की यारो 

कर लो तुम रसपान सुधा का 

क़दम क़दम यहाँ प्यार की गगरी 

छलके रस   बरसाए सुरा का । 


दूना यहाँ छल छल कर बहती 

ये आप कहानी अपनी कहती 

पैश्त के धोये ज़ख़्म भी इस ने 

बुदा के आँसू भी पौंछे  इस ने । 


खिलते फूल यहाँ  हर आँगन 

छलके नयन नयन में सावन 

चित चोर यहाँ चातक ठहरा 

हर चकवी मजनू  की लैला । 


झांकों झांकों  इन नयनो में तुम 

मस्ती में इनकी हो   जाओ गुम 

मदहोश तुम्हें जब  कर देंगी 

ख़ुश्बू साँसों में   भर देंगी ।


प्रीत यहाँ बहती हर उर में 

साज़ यहाँ सजता हर सुर में 

जितने फूल हँसे हैं खिल के 

हैं उतने ही आँसू भी छलके । 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Tuesday, November 15, 2022

ग़ज़ल - डूबती इक सुबह का मंज़र हूँ मैं

 डूबती इक सुबह का   मंज़र हूँ मैं

वक़्त का चलता हुआ चक्कर हूँ मैं 


कोई दरवाज़ा न कोई रौशनी 

तीरगी का एक सूना घर हूँ मैं 


दाग़ सीने में लिए फिरता रहा 

देखिये फूलों की एक चादर हूँ मैं 


दिल में रखी है किसी की मूर्ति

एक छोटा प्यार का मंदर हूँ मैं


आप भी चाहे तो ठोकर मार लें 

बारहा   तोडा गया   पत्थर हूँ मैं


लूटने का कब मुझे आया हुनर 

एक खस्ताहाल सौदागर  हूँ मैं 


हर कोई हैं मेरे साये में ' बशर '

हर तरफ फैला हुआ अम्बर हूँ मैं



शाइर - बशर देहलवी 



ग़ज़ल - दिल लगाना भी बेमज़ा निकला

 

दिल लगाना भी बेमज़ा निकला 

बावफ़ा जो था बेवफ़ा  निकला 


जो समुन्दर      दिखाई देता था 

एक पानी का  बुलबुला निकला  


मौत       की राह में    भटकने  को 

किसकी साँसों का काफ़िला निकला 


उनकी तिरछी निगाह का जादू 

हैरतों    से भरा     हुआ निकला 


जिस तरफ़ भी बढे क़दम अपने 

तेरे  घर का     ही रास्ता निकला 


कब    सहारा      दिया ज़माने ने 

अज़्मे दिल ही मेरा ख़ुदा निकला 


 जितना जो ख़ुश है देखने में ' बशर '

उसका उतना ही ग़म सिवा निकला  



 शाइर - बशर देहलवी 


Monday, November 14, 2022

ग़ज़ल - हर घडी इक आग सी सीने में मेरे है लगी

 

हर घडी इक आग सी सीने में मेरे है लगी 

लम्हा लम्हा जागती है मेरे दिल की तश्नगी 


ग़ैर के आँचल से क्या   उम्मीद रखूँ दोस्तों 

हो सकी न जब हमारी रौशनी अपनी ठगी 


सोचता हूँ छिन  न जाये मुझ से वो मेरी ख़ुशी

ढूँढ कर लाई है जिसको   आज मेरी ज़िंदगी  


कल फ़लक से रौशनी का कारवाँ गुज़रा कोई 

चाँदनी भी जिस के आगे रह गई गुमसुम  ठगी 


दिल में  रखी है   बसा कर जो भी सूरत ऐ ' बशर '

हर किरण में उस की सूरत हू ब हू  मुझ को लगी 


शाइर - बशर देहलवी 



ग़ज़ल - तब तक रहेंगी आप से ख़ुशियाँ परे परे

 


तब तक रहेंगी आप से ख़ुशियाँ परे परे 

जब तक रहेंगे आप ही इस से डरे डरे 


लगता है अब किसी से उठाया न जाएगा 

भारी   जो हो गया है   ये पत्थर   धरे धरे 


जाने वो क्या नज़र थी जो गुलशन पे छा गयी 

शाख़ों  पे खिल  उठे हैं   जो  पत्तें    हरे हरे 


देखो छलक न जाये लगा दी ये शर्त भी 

साक़ी ने दे को जाम  मुझे कुछ भरे भरे 


ऐसी ग़ज़ल सुनाओ कि सुन के जिसे ' बशर ' 

अरमान दिल में जाग उठे फिर मरे मरे 



शाइर - बशर देहलवी 




Saturday, November 12, 2022

ग़ज़ल - बेख़ुदी में भी बेकली सी है

 बेख़ुदी में  भी  बेकली  सी है 

राख सीने में कुछ दबी सी है  


दिन है जलते हुए फफोले सा 

रात ठहरी हुई   नदी सी   है 


हर तरफ़ तीरगी है वैसे तो 

दिलजले हैं तो रौशनी सी है 


रात भर ख़ुद जला तो ये पाया 

इश्क़ की आग कुछ नयी सी है 


याद फिर आ गया तेरा मिलना 

आज आँखों में कुछ नमी सी है 


उठ रहा   है धुआं   शरारों    से 

आग दिल में भी कुछ लगी सी है  


आग ढूंढों नहीं  'बशर  ' इस में 

रौशनी   आज    रौशनी    सी है 




शाइर - बशर देहलवी 


Thursday, November 10, 2022

ग़ज़ल - इक किरन चलती है जैसे रौशनी के साथ साथ

 

इक किरन चलती है जैसे रौशनी के साथ साथ 

आप भी चल कर तो देखो ज़िंदगी के साथ साथ 


ठीक ही कहते थे सारे लोग मुझको नासमझ 

दोस्ती मैंने   निभाई दुश्मनी   के साथ साथ 


इश्क़ तो करने चले  हो ये भी  सुन लो ये मियां 

दर्द भी दिल को मिलेगा दिल लगी के साथ साथ 


क्या ख़बर क्या हादसा गुज़रा फ़लक पर दोस्तों 

रात भर जागे   सितारे   चाँदनी    के साथ साथ 


दिल हमारा है अजब   शय टूटने   के बावजूद 

रात दिन महवे सफ़र है बेदिली के साथ साथ 


यूँ तो दुश्मन आदमी है आदमी का ऐ ' बशर '

आदमी रहता है फिर भी आदमी के साथ साथ 



शाइर - बशर देहलवी 


गीत - सह ले जो हर चुभन ,वो हृदय कहाँ से लाऊँ

 


      गीत 


सह ले जो हर चुभन ,वो हृदय कहाँ  से  लाऊँ 

कह दे जो हर कथन, वो समय कहाँ  से लाऊँ 


बन बन कर यूँ समय से टूटा हूँ कभी मैं

शीशा  भी मैं  नहीं हूँ  पत्थर  भी नहीं मैं 


चुन ले जो हर सुमन ,वो नयन कहाँ  से  लाऊँ 

बुन  दे जो हर कफ़न, वो वसन कहाँ  से  लाऊँ 


जल जल के यूँ चिता में ,बुझता हूँ कभी मैं 

शोला भी में नहीं हूँ ,  शबनम भी  नहीं  मैं


बुन  ले जो हर सपन, वो नज़र कहाँ  से  लाऊँ 

सह ले जो हर दमन ,वो उदर कहाँ  से  लाऊँ 


गिन गिन के यूँ सपन भी ,जगता हूँ कभी मैं 

जीवित भी मैं  नहीं हूँ ,  मरता  भी  नहीं  मैं। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


ग़ज़ल - इक न इक दिन फिर अंधेरों में कही खो जाएँगे


 इक न इक दिन फिर अंधेरों में कही खो जाएँगे

फिर भी लेकिन हम जहाँ में रौशनी बो जाएँगे 


अपने ग़म से जब कभी हम आशना हो जाएँगे

शौक़ से काँटों के बिस्तर पर कही सो  जाएँगे


 देख लो एक बार हम तुम फिर न जाने कब मिले 

टूट कर डाली से पत्तें भीड़ में खो जाएँगे 


हर तरफ़ होगी उदासी फिर तेरे जाने के बाद 

सब हँसी दिलकश मनाज़िर बेज़बाँ  हो जाएँगे 


दिल के दामन पर जो धब्बें हैं गुनाहों के ' बशर '

हो सका तो ख़ून- ए- दिल से हम इन्हें धो  जाएँगे 






शाइर - बशर देहलवी 



 

Wednesday, November 9, 2022

पुस्तक परिचय - हंगेरियन लोक कथाएँ ( हिन्दी अनुवाद )





                                                हंगेरियन  लोक कथाएँ 



 हंगेरियन  लोक कथाओं का यह अनुवाद मैंने मूल हंगेरियन  भाषा से किया है ।  इस पुस्तक का विमोचन 2006 में ही हंगेरियन सांस्कृतिक केंद्र ,दिल्ली  में संपन्न हुआ था । इसकी भूमिका मेरी अध्यापिका डॉ Köves Margit  ने लिखी है जो अभी भी दिल्ली विश्विद्यालय में हंगेरियन भाषा पढ़ाती हैं। मुखपृष्ठ का चित्र मेरी हंगेरियन कलाकार मित्र Hummel Rozália  द्वारा बनाया गया है जिनसे  मेरी पहली मुलाक़ात बुदापैश्त में और बाद में कई बार भारत में भी हुई।   पुस्तक में कुल 10 लोक कथाओं का अनुवाद शामिल है। बानगी के तौर  पर प्रस्तुत है इसी पुस्तक से एक लोककथा का हिंदी अनुवाद - 


Egyszer volt Budán kutyavásár

बुदा में कुत्तों  का बाज़ार सिर्फ एक बार 


आदत के अनुसार एक बार मात्याश  राजा ने एक गावँ की छोटी -सी सराय में रात गुज़ारी। अगली सुबह मैदान में घूमते हुए राजा ने दो किसानों को देखा। उन किसानों में से एक किसान बहुत कमजोर था और एक बूढ़े घोड़े से अपनी ज़मीन जोत रहा था। जब राजा ने देखा कि ग़रीब किसान को अपना काम करने में अत्यंत कठिनाई हो रही है तो राजा ने अमीर किसान की तरफ मुड़ कर उससे कहा कि उसे ग़रीब किसान की मदद करनी चाहिए।

" मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं ,सब अपना अपना काम देखते हैं "-अमीर किसान ने रुखा -सा जवाब दिया।

मात्याश  राजा को यह जवाब पसंद नहीं आया। उन्होंने ग़रीब किसान से कहा -" देख रहा हूँ कि तुम बहुत कठिनाई में हो। तुम्हे एक नेक सलाह देता हूँ - अगले इतवार बुदा में कुत्तों का बाज़ार  लगेगा।  तुम जितने भी गलियों  के कुत्ते इकट्ठे कर सको कर लो , चाहे  कैसे भी हो,उन सबको इकठ्ठा कर बुदा ले आना।"

ग़रीब किसान को कुछ हैरानी हुई , लेकिन उसने राजा की सलाह मान ली। जब वह आवारा कुत्तों को इकठ्ठा  कर बुदा के बाज़ार में  पहुंचा तब राजा भी अपने मंत्रिओं के साथ बाज़ार में आया और उसने ग़रीब किसान से महंगे दामों में कई कुत्ते ख़रीदे।  राजा ने अपने मंत्रिओं को भी कुत्ते ख़रीदने के लिए कहा।  किसी में इतना साहस नहीं था कि राजा की बात को टालते।  सभी मंत्रिओं ने  कुत्ते ख़रीदे और पैसे दिए।

ग़रीब किसान बहुत से पैसों के साथ गावँ लौटा और उसने सबको अपनी कहानी सुनायी कि वह कैसे अमीर बन गया था। अमीर पड़ोसी ईर्ष्या से जल-भुन गया। उसने  अपने बैल , घोड़े ,घर आदि सब कुछ बेच कर ख़ूबसूरत नस्ली कुत्ते ख़रीदे और उन कुत्तों को लेकर बुदा गया।

उस समय बाज़ार में किसी का भी मूड कुत्ते ख़रीदने का नहीं था । अमीर किसान राजा के महल की तरफ़ गया और पहरेदार से बोला - "राजा को बताओ कि मैं शानदार नस्ली कुत्ते बेचने के लिए लाया हूँ "। जवाब आने में देर नहीं लगी। महल के पहरेदार ने उससे कहा - " मात्याश  राजा तुम्हारा ही इन्तिज़ार कर रहे थे ओर उन्होंने तुम्हारे नाम सन्देश भेजा है कि बुदा में कुत्ता का बाज़ार सिर्फ एक बार लगा था "।

 तुम जहाँ से आये हो वही लौट  जाओ।


                                   ***
अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस






पुस्तक का नाम - हंगेरियन  लोक कथाएँ 

लेखक - Anonymous 

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रकाशक - मंजुली प्रकाशन , नयी दिल्ली 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2006

कॉपीराइट - अनुवादक 

पृष्ठ - 32

मूल्य - ( 30/ INR  ( तीस रुपए केवल )

Binding -  Paperback

आवरण एवं चित्रांकन   - Rozila Hummel

Size - डिमाई 5.3 " x 8.1 "

ISBN - 81-88170-28-3






प्रस्तुतिइन्दुकांत आंगिरस


Monday, November 7, 2022

गीत - अपनी ही साँसों से मुझे इक गीत चुराना है

 

गीत 


अपनी ही   साँसों से मुझे   इक गीत चुराना है 

सूनी इन राहों पे मुझे   इक दीप जलाना है 


कल शायद न मिल पाऊँ दुनिया के मेले में 

पर याद बहुत आऊँगा तुमको मैं अकेले में 

इक बात मेरी सुन लो , इक बात मेरी गुन लो 

कौन बिछड़ कर मिलता है दुनिया के मेले में


इन गीतों से ग़म का ,तो रिश्ता ये  पुराना है 

अपनी ही   साँसों से ....


मन बिखरा तन बिखरा , बिखरे जीवन के सपने 

हर    शख़्स लगा है अब   तो ख़ुद अपने से डरने 

सबका मैं आघात सहूँ ,किस से  दिल की बात कहूँ

अपनों   में   बेगाने    निकले     बेगानों   में अपने 

 

ग़ैरों को ही अब तो मुझे ये  राज़  सुनाना है 

अपनी ही   साँसों से ....


मेरे इस सूने मन में इक मीत रहा करता था 

अक्सर दिल की बात मुझसे वो कहा करता था 

अब तो वो भी रूठ गया , जैसे सपना टूट गया 

अश्क मेरी आँखों से , जो रोज़ बहा करता था 


अपने इन अश्कों से मुझे इक दाग़ मिटाना है 

अपनी ही   साँसों से ....



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 





Saturday, November 5, 2022

मौत का एक दिन मुअय्यन है , नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

 


बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब  - मौत का एक दिन मुअय्यन  है , नींद क्यूँ  रात भर नहीं आती 


मौत का दिन ही तय नहीं होता बल्कि जगह और वक़्त भी पहले से ही तय होता है।  फ़ारसी में एक पुरानी कहावत है कि इंसान का दाना - पानी और उसकी मौत उसको खींच कर ले जाती है , मसलन अगर मेरी मौत यहाँ से ५००० किलोमीटर दूर किसी ख़ास जगह और वक़्त पर लिखी है , तो मैं उस जगह और उस वक़्त पर वहाँ  पहुँच जाऊँगा। इंसान के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि वह सही वक़्त और जगह पर मरे और अगर ऐसा नहीं होता तो उसके परिवार और दोस्तों को शिकायत रह सकती है। असल में इंसान की मौत  के बारे में सब कुछ पहले से तय होता है लेकिन इंसान को इसका इल्म नहीं होता और होना भी नहीं चाहिए , अगर ऐसा हुआ तो इंसान मौत को भी धोका देने की कोशिश करेगा। कुछ लोगो का तो ये भी मानना है कि मौत  सिर्फ़ एक ठहराव होती है और इस ठहराव के बाद इंसान फिर से ज़िंदा हो जाता है। 


बक़ौल मीर तक़ी मीर

मुर्ग मांदगी का एक वक़्फ़ा है 

यानी आगे चलेंगे दम ले  कर 


इस बात को यूँ भी समझा जा सकता है कि वास्तव में मौत सिर्फ़ बदन की  होती है रूह की नहीं , यानी आत्मा कभी नहीं मरती। गीता में भी यही कहा गया है कि आत्मा सिर्फ़ चोला बदलती है। 


 मौत के बारे में लोगो के अलग अलग ख़्याल है , उर्दू शाइरी में आपको मौत पर हज़ारों शे'र मिल जायेंगे। 


बक़ौल कृष्ण बिहारी नूर -


 ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है , 

 दूसरा कोई रास्ता ही नहीं। 


मौत , ज़िंदगी कि मंज़िल तो है लेकिन  यह मंज़िल ऐसी है जहाँ पहुँच कर किसी को ख़ुशी नहीं मिलती बल्कि मिलता है अंतहीन दर्द। 

जब दूसरा कोई रास्ता ही नहीं तो क्यों नहीं हम इसी रास्ते को खुशगंवार बना ले और इस रास्ते पर मोहब्बत के फूल उगाते चले जिससे कि आने वाली नस्लों को यह रास्ता काटने में दुश्वारी न हो।



प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस  

ग़ज़ल - अकसर अपनी राख उड़ा कर बन जाते हैं तारे लोग


अकसर अपनी राख उड़ा कर बन जाते हैं तारे लोग 

फिर अनजान नगर में जा कर छुप जाते हैं सारे लोग 


अपनी अपनी ज़ात बना कर रख लेते हैं प्यारे नाम 

फिर उनमे से बन जाते हैं मीठे , खट्टे , खारे लोग 


हाथ अगर तुम रख दो सर पे बन जाते हैं बिगड़े काम 

सर पर रख दो हाथ हमारे हम हैं ग़म के मारे लोग 


हम है बहते दरिया जैसे अपना रैन बसेरा क्या 

चलते रहना काम हमारा हम ठहरे बंजारे लोग 


आई है फिर याद किसी की आज ' बशर ' तड़पाने को 

क्यों इस  दिल में भर जाते हैं   चुपके से    अंगारे लोग  



शाइर - बशर देहलवी 

Friday, November 4, 2022

ग़ज़ल - बरसाए सिर्फ़ फूल ही कब है बहार ने

 


बरसाए सिर्फ़   फूल ही   कब है बहार ने 

बख़्शा है दिल को दर्द भी परवरदिगार ने 


फ़ुर्सत कहाँ उन्हें जो वो आएँगे इस तरफ़ 

आ मिल गले मुझी   से कहा इन्तिज़ार ने 


मिलता कहा से हमको दरे यार का पता 

छोड़े हैं नक़्शे पा भी न देखों ग़ुबार ने 


फूलों से गुफ़्तगू की तमन्ना तो इक तरफ़  

रोने दिया न हमको  तो उजड़े दयार ने 


सीने में इक आग भड़कती थी ऐ ' बशर ' 

उसको   बुझा दिया  है दिल बेक़रार ने 




शाइर - बशर देहलवी 

ग़ज़ल - अब एक फूल भी उगता नहीं निगाहों में

 

अब एक फूल भी उगता नहीं निगाहों में 

बबूल  इतने  कोई  बो  गया  है  राहों में 


लिखूँ भी कैसे हथेली पे दास्तां अपनी 

हैं लफ़्ज़ डूबे हुए सब के सब गुनाहों में 


कहे किसे कि वो क़ातिल है और लुटेरा है 

हर एक शख़्स मसीहा है क़त्लगाहों में 

 

इसे तो और कही जा कर तुम तलाश करो 

स्कूने दिल न मिलेगा किसी की चाहो में 


कहाँ वो ताब रही दिल में अब ' बशर ' बाक़ी 

समेट लूँ मैं जहाँ भर को अपनी बाँहों में


शाइर - बशर देहलवी 

   


ग़ज़ल - घर जलाओ नहीं दुश्मनी के लिए

 


घर जलाओ  नहीं   दुश्मनी के लिए 

इक ज़रूरत है घर आदमी के लिए 


यार तुझ सा नहीं फिर मिलेगा मुझे 

दुश्मनी   भी तेरी   दोस्ती के लिए 


हर ख़ुशी तो मिली ज़िंदगी में मगर 

ज़िंदगी न मिली   ज़िंदगी के लिए 


झिलमिलाते हुए कुमकुमों  को न गिन

इक दिया है   बहुत   रौशनी के लिए 


इश्क़ मुझको नहीं ज़िंदगी से मगर 

ज़िंदगी है   मेरी  बंदगी के    लिए


कारवाँ भी गया , हमसफ़र भी गए 

वक़्त रुकता नहीं है किसी के लिए 


आइना   तो सबब   पूछता है ' बशर '

बन संवर के न चल हर किसी के लिए  





शाइर - बशर देहलवी   


ग़ज़ल - अपनी आँखों में बसा कर देखो

 अपनी आँखों   में बसा   कर देखो 

ग़म को पलकों पर सजा कर देखो 


इतना मुश्किल  भी  नहीं  है यारों 

दिल किसी बुत से लगा कर देखो 


हो ही जायेगा उजाला हर सू 

प्यार की शम्ह जला कर देखो 


यूँ ही पत्थर न उठा  कर फैंको 

शीश ए दिल पे गिरा कर देखो 


ऐ ' बशर ' चैन से बैठो घर में 

बेवफ़ाओं को भुला कर देखो  


शाइर - बशर देहलवी   


ग़ज़ल - बिना हो नींद पे जिनकी वो मेरे ख़्वाब नहीं

 

बिना हो नींद पे जिनकी वो मेरे ख़्वाब  नहीं 

मैं अपने आप में इक लफ़्ज़ हूँ किताब नहीं 


मेरे सवाल पे चुपके से मुँह के फेर लिया 

ये बेरुख़ी   तो मेरा   हासिले जवाब नहीं 


किसी की आँख से निकला हुआ मैं आँसू हूँ 

मैं फैल जाऊँ तो   मेरा कोई  हिसाब नहीं 


उतर के आई   है आँगन   में चाँदनी मेरे 

अगरचे अर्श पे अब कोई माहताब नहीं 


घुली हो जिसमे न साक़ी की चश्मे नाज़ ' बशर '

भले हो चीज़   वो कुछ भी   मगर शराब  नहीं। 




शाइर - बशर देहलवी   


ग़ज़ल - तीर जितने चले रक़ीबों के

 तीर   जितने   चले   रक़ीबों के 

दिल में जा कर चुभे हबीबों  के 


हम ही ढोते रहे  सलीब मगर 

हम ही वारिस नहीं सलीबों के 


हम भिखारी किसे कहे यारों 

सब है राजा  यहाँ नसीबों के 


आप तो सिर्फ़ इक  सहारा थे 

बन गए कब ख़ुदा ग़रीबों के 


आज घर घर में हैं अदीब ' बशर '

कौन घर  जाये   अब अदीबों के  



शाइर - बशर देहलवी 

Thursday, November 3, 2022

पुस्तक परिचय - पकना एक कहानी का ( लघुकथा संग्रह )







पकना एक कहानी का  , लघुकथा संग्रह की लेखिका शोभना श्याम एक प्रतिष्ठित लेखिका  हैं। यह लेखिका का दूसरा लघुकथा संग्रह है।  इस लघुकथा संग्रह में कुल ७१ लघुकथाएँ है। पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार बलराम अग्रवाल ने लिखी  है।  संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ सामजिक सरोकारों से जुडी हैं और समाज में व्याप्त  विभिन्न कुरीतियों और असंगतियों को उजागर करती हैं। बलराम अग्रवाल ने अपनी भूमिका में लिखा है -" कुल मिलाकर शोभना की लघुकथाएँ भीड़ में अलग खड़ी दिखाई देती हैं , गुणवत्ता के प्रति आश्वस्त करती हैं। 
बानगी के रूप में इसी लघुकथा संग्रह से प्रस्तुत है एक लघुकथा -


                                                          कुतरे हुए नोट

 

जैसे-जैसे आर्डर होती डिशेस की संख्या बढ़ती जा रही थी, प्रशांत की बेचैनी भी उसी अनुपात से बढ़ रही थी, उसे ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके दिल को मुठ्ठी में जकड़ लिया है और दबाता ही जा रहा है । 

वह कॉरपोरेट में नया-नया आया था और एक अघोषित नियम के चलते उसे स्टाफ को 'न्यू जॉइनिंग ट्रीट' देनी पड़ी । काफी कोशिश की उसने टालने की । अपनी आर्थिक स्थिति की तरफ इशारा भी किया, लेकिन किसी को उस सब से कोई मतलब नहीं था।

उनकी ज़िद  और फ़िकरों का लब्बो-लुआब यह था कि कॉरपोरेट में इतना कम कोई नहीं कमाता कि एक ट्रीट न दे सके । ज़ियादा   न सही, एक-एक ड्रिंक और हल्के  - फुल्के स्नैक्स तो कोई भी अफोर्ड कर सकता है। अब वह कैसे बताता कि उसकी ठीक-ठाक तनख़्वाह  उन सब की तरह घर में एडीशनल नहीं बल्कि एकमात्र है । उसके पास न एक अदद पिता है, न पिता का घर । हिंदी फ़िल्मों  की तर्ज़ पर एक माँ, एक कुँवारी बहन और एक खड़ूस मकान मालिक है । लेकिन न तो वह कह पाया और कहता भी तो वे सुनते नहीं । कॉरपोरेट की "ईट , ड्रिंक एंड बी प्रिपेयर फॉर हार्ड वर्क" वाली नीति में इस प्रकार का कहना सुनना होता ही नहीं।

 सो अब वे सब इस हाई-फाई बिल्डिंग में ही बने एक रेस्ट्रॉं में बैठे हैं। उसके कुछ खा न पाने पर उन्होंने कंजूसी का लेबल लगा दिया है । ट्रीट खत्म हो चुकी है। वह बड़ी लाचारी और बेकसी से देख रहा है- हर प्लेट में कुछ कुतरे हुए नोट पड़े हैं।

-शोभना श्याम
 



पुस्तक का नाम - पकना एक कहानी का   ( लघुकथा संग्रह )


लेखक -  शोभना श्याम

प्रकाशक - अधिकरण प्रकाशन 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2018

कॉपीराइट - शोभना श्याम 

पृष्ठ - 128

मूल्य - 350/ INR  ( तीन  सौ पचास रुपए केवल )

Binding - Hardbound

Size - डिमाई  4.8 " x  7.5 "

ISBN - 978 -93-87559-44-8

आवरण  - हिमांशी मित्तल





                                                                                                   प्रस्तुति -इन्दुकांत आंगिरस 

पुस्तक परिचय - लिथुआनियन लोक कथाएँ ( हिन्दी अनुवाद )

 







लोक कथाएँ  अक्सर किसी भी राष्ट्र की संस्कृति की संवाहक होती हैं।  हज़ारों साल से चली आ रही इन  लोक कथाओं का अपना संसार होता हैं। विभिन्न देशों की लोक कथाएँ   पढ़ कर हम सभी का ज्ञान बढ़ता है।  लिथुआनिअन लोक कथाओं का यह अनुवाद मैंने मूल लिथुआनियाई भाषा के ज़रिये अपने लिथुआनियाई चित्रकार मित्र ज़ीता विलुतीते की मदद से किया।  इस पुस्तक का विमोचन 2007 में बैंगलोर में संपन्न हुआ जिसमे ज़ीता विलुतीते भी मौजूद थी।  इस अवसर पर उनके चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी थी। इसकी भूमिका भी ज़ीता विलुतीते ने लिखी है। पुस्तक में कुल 10 लोक कथाओं का अनुवाद शामिल है। 


पुस्तक का नाम - लिथुआनियन लोक कथाएँ 

लेखक - Anonymous 

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रकाशक - मंजुली प्रकाशन , नयी दिल्ली 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2007

कॉपीराइट अनुवादक 

 पृष्ठ - 32

मूल्य ( 30/ INR  ( तीस रुपए केवल )

Binding -  Paperback

आवरण एवं चित्रांकन   - Zita Vilutyte

Size - डिमाई 5.3 " x 8.1 "


ISBN - 81-88170-50-X






प्रस्तुतिइन्दुकांत आंगिरस



 



Wednesday, November 2, 2022

ग़ज़ल - धुआं सा बन के मुझे फिर बिखर ही जाना है


धुआं सा बन के मुझे फिर बिखर ही जाना है 

जिधर से आया था मैं फिर उधर ही जाना है 


हर एक बात वो कहता तो है यक़ीं से मगर 

मैं जानता हूँ कि उसने मुकर ही जाना है 


भड़क उठी है जो सीने मैं आग फुरकत की

उसे भी दिल को जला कर गुज़र ही जाना है 


गुज़र ही जाएगी ये रात भी किसी सूरत 

चढ़ा हुआ है जो दरिया उतर ही जाना है 


बुला रहा है मुझे हर कोई करीब अपने 

मैं जानता हूँ कि मुझको बिखर ही जाना है 


समझ में ये नहीं आता कि बरहमी क्यों है  

सराए फ़ानी से सबको गुज़र ही जाना है 


वो मान जाएँगे , आएंगे , पास बैठेंगे 

मेरी दुआ ने ' बशर ' काम कर ही जाना है 



शाइर - बशर देहलवी  


ग़ज़ल - काँटों का पहरा होता है


 काँटों का पहरा होता है

फूल जहाँ सोया होता है 


जीवन के टेढ़े रास्तों पे 

थम थम कर चलना होता है 


दुश्मन तो होता है दुश्मन 

अपनों से बचना होता है 


हर आंसू  के पीछे देखो 

ग़म का इक दरिया होता है 


मिल जाता है उससे आख़िर 

जिससे दिल मिलना होता है 


यूँ तो तुम भी ग़ैर नहीं हो 

' अपना फिर अपना होता है '


रहबर से रहज़न है बेहतर 

वो धुन का पक्का होता है 


टूट गया तो रोना कैसा 

सपना कब अपना होता है 


बात निकलती है जो दिल से 

उसका असर बड़ा होता है 



शाइर - बशर देहलवी   

ग़ज़ल - ये ज़मी तो हैं ज़मी , वो आस्मां हिल जाएगा

 

ये ज़मी तो हैं ज़मी , वो आस्मां हिल जाएगा

दिल का भूले से कभी जो आबला छिल जाएगा  


फूल ही फिर तो जहां में हर तरफ़ खिल जाएँगे  

फूल सा चेहरा कभी जो आपका खिल जाएगा 


आएगी फसलें बहारां जब कभी ऐ दोस्तों 

चाक इस दिल का गरेबां देखना सिल जाएगा 


कब तलक बैठे रहोगे मंज़िलों का ग़म लिए 

ढूंढ़ने निकलोगे जब भी रास्ता मिल जाएगा 


तीरगी ही तीरगी छा जाएगी चारों तरफ़ 

रौशनी दे कर जहां को जब मेरा दिल जाएगा 


मिल गए जो वो 'बशर' कल फिर मुझे इस राह में 

अजनबी दिल को मेरे इक आशना मिल जाएगा 




शाइर - बशर देहलवी   

Tuesday, November 1, 2022

ग़ज़ल - घर बसाने हम चले थे , दिल लुटा कर रह गए

 घर बसाने हम चले थे , दिल लुटा कर रह गए 

ग़म हमारी   ज़िंदगी पर   मुस्कुरा कर रह गए 


दूर हो पाई   न फिर भी   आस्मां की तीरगी 

रफ़्ता रफ़्ता सब सितारे जगमगा कर रह गए 


जब सुनानी ही पड़ी ख़ुद   उनको अपनी दास्तां 

दिल की मजबूरी पे अपनी तिलमिला कर रह गए


ख़ुद को भी लगने लगे जब अजनबी तो दोस्तों 

आईने के  सामने हम   सर झुका कर रह गए 


याद उनकी जब भी आई , झूमती गाती ' बशर '

एक मीठी सी ग़ज़ल हम   गुनगुना कर रह गए 



शाइर - बशर देहलवी 




ग़ज़ल - गुम चिराग़ों से कभी जब रौशनी हो जाएगी

 


गुम चिराग़ों से कभी जब रौशनी हो जाएगी 

हर तरफ़ बस तीरगी ही तीरगी हो जाएगी 


दाग़ सीनों के जला कर आएगी शब देखना 

फिर अंधेरों में  कही पर रौशनी हो जाएगी 


कौन   डालेगा   गले में    इसके बाँहें दोस्तों 

जब गुनाहों की नज़र ये ज़िंदगी हो जाएगी 


इस कदर भी आँच तुम देना न अपने शौक़ को 

दर्द ए सर वरना तुम्हारी दिल लगी हो जाएगी 


मंज़िलें खिंच कर चली आएँगी फिर तो ऐ ' बशर '

जब थकानों से   सफ़र की   दोस्ती हो जाएगी 


ग़ज़ल - मुझे जो छोड़ कर राहों में यूँ तनहा खड़ी है



 मुझे जो छोड़ कर राहों में यूँ  तनहा खड़ी है 

बड़ी बेदर्द है  अपनी ही   मेरी    ज़िंदगी है 


मुझे हर सम्त आते हैं नज़र शोले ही शोले 

न जाने दिल में कैसी आग सी मेरे लगी है 


समुन्दर भी बुझा सकता नहीं है जिस को यारों 

कभी वो तिश्नगी भी एक क़तरे से बुझी है 


न जाने कौन सा डर है जो उसको खा रहा है 

मेरी उम्र रवां मुड़ मुड़ के मुझको देखती है 


जिसे मैं ग़म ज़माने का समझता था अभी तक 

अकेले   वो मेरी ही   ज़िंदगी   की   बेकसी है 


" बशर " सब बेवफ़ा है कौन मिलता है किसी से 

शबे - हिज्रा ये   मेरे कान में   कह कर   गई है  




शाइर - बशर देहलवी 

Sunday, October 30, 2022

मुतफ़र्रिक़ अशआर

 

कितनी दिलकश है उन के सलाम की अदा 

वो बुहारते हुए दहलीज़ तक आना उनका 


शाम देर तलक किसी की याद आए   

सूनी छत की मुंडेर पर कुहनी टिकाए


गुज़र जानी है शब यूँ ही तो बस यूँ ही गुज़ारेंगे,

न उनको याद आएँगे न उनकी याद आएगी। *


डूबने के लिए घर से निकल तो पड़े 

पर उन आँखों सा समुन्दर और कहाँ 


फिर मेरी मुश्किलें आसान हो गईं

निगाहें उनकी जब मेहरबान हो गईं


जहाँ क़ाफ़िला थक हार कर है बैठ गया 

वही से शुरू होता है यारो सफ़र मेरा  


अब ढक भी लीजिए अपनी मासूम आँखें 

यूँ न डूबता सूरज दूर से देखा करिए   


नहीं अपने ही दिल पर इख़्तियार हमें 

कैसे कहें उन से हमे भूल जाओ 


कही आने जाने का दिल करता नहीं 

क्या आईना  देखें क्या बाल सँवारे 


तेरी याद से दिल ऐसा हुआ   बेक़रार 

तेरी याद से भी अब आता नहीं क़रार 


जाने कब गई रात जाने कब सहर हुई 

उसकी आँखों की मस्ती गुलमोहर हुई 


उन्हें खोकर अब कोई आरज़ू नहीं रही 

ग़म ग़म न रहा , ख़ुशी ख़ुशी न रही 


नामुराद दिल का न रहा सहारा कोई 

साहिल पे बैठ भी ढूंढा करे किनारा कोई 




कभी हँसी तो कभी रोना आए है 

वो मासूम बाते जब याद आए है 


लिख कर शफ़क़ के होठों पे नाम मेरा 

छुपा तो लिया चेहरा उसने हाथों में 


भीड़ में भी तनहा हूँ मैं

एक गुज़रा लम्हा हूँ मैं 


हर तरफ बिखरी हुई तन्हाइयाँ 

परछाइयों में  क़ैद   परछाइयाँ 


अश्क भी मेरा भाप बन उड़ गया 

वस्ल की राह से हर क़दम मुड़ गया 


झुंझला कर मुँह फेर का सो गए 

अश्क भी मेरे अब फरेब हो गए 


बात निगाहों से उतर दिल तक पहुँचे है 

मुख़्तसर सी बात न समझे उम्र भर 


न इतने प्यार से देखिये हमको 

अभी कुछ और जीने को जी चाहे है 


कितनी वीरान है दुनिया बिन तुम्हारे 

उदास फूल उदास गुलशन उदास बहारे


फिर छेड़ दिया कोई किस्सा पुराना 

निचोड़ कर कपडे उस ने छत पर 


न इतना इतराइये इस आईने पर 

वक़्त के साथ ये भी बदल जायेगा 


पी तो ली उन मस्त आँखों से शराब 

अब कौन छोड़ेगा मुझे मेरे घर तक 


माना ये रेत के घर बिखर जायेंगे 

कभी यूँ भी बिखरने को जी चाहे है 


रुक रुक कर ठहर जाती है निगाहें उस मोड़ पर 

जहाँ पे हम मिले थे , जहाँ से अभी तुम मुड़े हो 


इस दस्तक से दिल उनका वाकिफ है ज़रूर 

ये और बात है , संभल के पूछे - कौन है ?


मेरी उम्र से भी लम्बा ये सफर हो गया 

फिर डूब गयी शाम देखते देखते 


उनकी आँखों की कैफ़ क्या कहिए 

कलेजा हाथों से थामे रहिए  


दफ़अतन गिरा जो   भी गिरा पहलू में 

अब जो गिरे तो दानिश्ता गिरे पहलू में 


तुम ही नहीं और भी रूठे हैं  मुझ से 

जी अपना भी है रूठे मगर किस से 


लम्हें गुज़रे वक़्त क्व सजा भी लूँ तो क्या 

लौट कर आती नहीं ख़ुशी  ग़म की तरह 


इल्ज़ाम  तेरा सर तो मैं ले लूँ  मगर 

यक़ीन क्या है तेरी आँखों का न बदलेंगी 


दीवार से उतरती धूप से ही पूछिए 

गिरेगी कब दिलों के सहन की दीवार 


किनारे न मिले हैं न मिलेंगे कभी 

रोकेगा कौन मगर लहरों को लिपटने से 


मसलहत का उम्र से दूर दूर तक रब्त नहीं 

खरोंचे दिल की बता देती है धार की तेज़ी 


बाद तेरे , तेरी ही याद आये ऐसा कहाँ 

दिल तो फिर दिल है , इस पर बस कहाँ 


हर बार सफर तय किया जाये ऐसा नहीं 

मंज़िलें भी खुद बी खुद चली आती है कभी 


उससे न कभी ज़िक्र करूँगा अपने क़िस्सों का 

मैं कब चाहूँगा  वो मुझे बेवफ़ा  समझें 


अच्छा ही हुआ हमे तैरना न आया 

उसकी आँखों में उतरें और डूब गए 


वीरानियाँ मेरी मुझे ले जाएँगी कहाँ 

सकूं उन्हें भी और कही ऐसा कहाँ


इस दौरे कमखुलूस में बात रब्त की न कीजिए

दुश्मनी भी न निभा पाए लोग क्या कीजिए 


रफ़ू  अपने ज़ख़्मों को न करों यारों  

यही  वो शय है जो मुफ़्त मिलती है 


उसकी बेनियाज़ी का मुझे ग़म नहीं 

उसने मुझे चाहा है कुछ कम नहीं  


हादिसा यही बस मेरे साथ हुआ 

ज़ख़्म उसने  जब छुआ मेरा छुआ 


माना तेरे वा'दें  हैं तोड़ने के लिए 

पर मेरा दिल तो कोई वा'दा न था 


डर मुझे किसी दुश्मन से नहीं लगता 

बस न मिले दुश्मन कोई दोस्त बन कर 


मिटाने इन्हें आप यहाँ कहाँ आ गए 

घर से ही शुरू होते हैं सब फ़ासले 





 






ग़ज़ल - आप फूलों सा बिखरना सीखिए

 

आप फूलों सा   बिखरना  सीखिए 

खाक़ में मिल कर संवरना सीखिए 


आ गया ज़ीनों पे चढ़ना आपको 

अब ज़रा नीचे उतरना सीखिए 


इस से पहले आप भी कुंदन बनें 

आग से हो कर गुज़रना सीखिए 


ग़म भी मिलता है कहाँ सब को यहाँ

सारी ख़ुशियों  से उभारना  सीखिए 


आप तक भी जाम आएगा ' बशर '

दिल में साक़ी के उतरना सीखिए 


शाइर - बशर देहलवी


ग़ज़ल - किसी के दिल से निकली इक दुआ हूँ


 किसी के दिल से निकली इक  दुआ हूँ 

मैं   जैसे एक   अधूरी  -सी   सज़ा हूँ 


मुझे तकरार ही में खो न देना 

सुनो मैं एक लम्हा प्यार का हूँ 


मुझे वो काश आ कर ये बताएं 

नहीं इन्सां तो फिर मैं और क्या हूँ 


हैं कुछ बदले हुए ये आईने भी 

कुछ उन के साथ मैं बदला हुआ हूँ 


भले हैं लोग सब दुनिया के यारो 

मुझी में है कमी ,   मैं ही बुरा हूँ 


मुझे वो   ढूँढ़ते   फिरते है हर सू 

मैं दिल में जिनके बरसो से छुपा हूँ 


कभी हँसते कभी रोते हो मुझ पर 

कहो सचमुच मैं क्या इतना बुरा हूँ 


असर हो जायेगा उस के भी दिल पर 

मैं कितनी बार जिस से मिल चुका हूँ 


शाइर - बशर देहलवी 


ग़ज़ल - अब और कोई क्या मुझे नाशाद करेगा

 


अब और कोई क्या मुझे नाशाद करेगा 

 मेरा ये  जुनूं   ही   मुझे    बर्बाद करेगा 


महफ़िल में मुझे रोके है जिस काम से अकसर

उस काम   को  वो ख़ुद   ही मेरे  बाद करेगा 


अब टूटे हुए दिल में ख़ुशी आए तो कैसे 

तड़पेगा न अब और ये फ़रियाद करेगा 


आती है सदा कोई तो कहता हूँ ये ख़ुद से 

क्या उसको पड़ी है जो मुझे याद करेगा 


लो ये भी भरम टूट गया आज 'बशर' का 

कहता था वो आएगा मुझे शाद करेगा  


शाइर - बशर देहलवी 

Saturday, October 29, 2022

ग़ज़ल - यादों के आईने में लगते रहे पराए

 यादों के  आईने   में लगते  रहे पराए

लेकिन नहीं गए वो दिल से मेरे भुलाए


दिल ढूंढ़ता है उनको दिन रात अब हमारा 

जो हमसफ़र बने थे जो लौट कर न आए 


इस दिल का रूठना भी है इक बड़ी मुसीबत 

रूठे   हुए दिलों   को   कैसे   कोई मनाए 


भूले से भी कभी तुम दिल पर न चोट करना 

है   इक यही   मकां जो बनता   नहीं बनाए 


कुछ बात की न उसने और न मुझे बुलाया 

जाऊँ मैं दर पर उसके कैसे बिना बुलाए 


मुड़ ही गए क़दम तो उनको ' बशर ' न रोको 

ये   रास्ता भी   शायद    घर को उसी के जाए



शाइर - बशर देहलवी 


वसंत का ठहाका - दोआबा

दोआबा


गंगा और जमुना के बीच का ये

 ' दोआबा '

था कभी बहुत ख़ुशहाल और हरा - भरा

हिन्दी और उर्दू ज़बानों की मानिंद

लेकिन आज इसका बदन ही नहीं

इसकी रूह भी ज़ख़्मी है ,

ख़ून के छींटों ने बदरंग बना दिया  इसे

एक खूं ख़्वार जंगल बना दिया  इसे

जहाँ  प्यासे है सब जानवर

एक दूसरे के ख़ून के ,

वही  जानवर  जो शायद कभी इंसान थे

बन्दे थे ख़ुदा के , आदम की पहचान थे

जो पानी मांगने पर आब लाते थे

चाँद की झोली में महताब लाते थे

जिनके ख़्वाब सपनों में ढल जाते थे ,

अब पानी भी है और आब भी

फिर भी सब हैं प्यासे

एक - दूसरे के ख़ून  के प्यासे ,

कैसी प्यास हैं ये

जो जला रही है मोहब्बत के ख़तूत

इंसानियत के सब सबूत ,

गंगा - जमुना के बीच का 

वही   ख़ुशहाल दोआबा

फलता फूलता रहे तो बेहतर है 

गंगा - जमुनी तहज़ीब

इक - दूजे में घुलती रहे तो बेहतर है ,

मुझे डर है 

ये दोआबा , मरघट  कही न बन जाए

हम सब  प्यासे कही न  मर जाएँ,

गर ऐसा हुआ तो 

गंगा और जमुना का पानी

रोएगा अपनी क़िस्मत पर ।




कवि - इन्दुकांत आंगिरस 



जंगली कबूतर और मुटरी - A vadgalamb és a szarka ( हंगेरियन लोककथा का हिन्दी अनुवाद )

 


पंचतंत्र की कथाओं से आप सभी परिचित हैं। इन कथाओं में अक्सर जानवरों और पक्षियों  के माध्यम से समाज को नीतिपरक ज्ञान दिया जाता रहा है। पंचतंत्र की कथाएँ सिर्फ़ भारत में ही नहीं अपितु दूसरे राष्ट्रों और भाषाओं में भी उपलब्ध हैं। प्रस्तुत है , हंगेरियन भाषा में उपलब्ध ऐसी ही एक लोककथा का हिन्दी अनुवाद जोकि आज भी प्रासंगिक है , विशेषरूप से भारतीय साहित्यिक परिवेश में। 

कोरोना के दौरान हिन्दी कवि / लेखक कुकुरमुत्ता की तरह उग आयें। वे सभी कवि / लेखक इस लोककथा को ज़रूर पढ़ें जो चहार कविताएँ लिख कर ख़ुद को फ़ारसी का उस्ताद समझने लगते हैं और साहित्य की पावन गंगा नदी को अपने कूड़े -करकट से दूषित करते जा रहे हैं।  





 A vadgalamb és a szarka

जंगली कबूतर और मुटरी 


जंगली कबूतर ने मुटरी से कहा कि वह उसे भी घोंसला बनाना सीखा दे क्योंकि घोंसला बनाने में मुटरी उस्ताद है और वह ऐसा घोंसला बनाना जानती है जिसमे  बाज़ , शिकरा नहीं घुस सकते। 

मुटरी ने ख़ुशी ख़ुशी उसे सीखाना  स्वीकार कर लिया।  घोंसला बनाने के बीच एक एक टहनी को जोड़ते वक़्त मुटरी अपने अंदाज़ में जंगली कबूतर से कहती - 

-" इस तरह रखो , इस  तरह बनाओ ! इस तरह रखो , इस  तरह बनाओ "

यह सुन कर जंगली कबूतर बोला - 

जानता हूँ , जानता हूँ , जानता हूँ !

मुटरी एक पल को ख़ामोश हो गयी लेकिन बाद में ग़ुस्से से भर उठी। 

- अगर जानता है  , तो बना ले अपने  आप ! - और उसने घोंसला अधूरा ही छोड़ दिया। 

जंगली कबूतर उसके बाद से न तो कभी उस घोंसले को पूरा कर पाया और न ही मुटरी उस्ताद से कभी कुछ सीख पाया।  



( प्रसिद्ध  लोककथा )

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस


NOTE : मुटरी एक प्रकार की चिड़िया होती है जिसका सिर, गरदन और छाती, काली तथा बाक़ी  शरीर कत्थई होता है। यह कौए से कहीं बढ़कर चालाक और चोर होती है। इसको अँगरेज़ी भाषा में Magpie  कहते है। 

Friday, October 28, 2022

हंगेरियन गद्य का आंशिक हिन्दी अनुवाद

Polixena Tant 


 कोलोशी ... ( बारतोती , बारतोती , बारतोती ) एक आम अंधविश्वास , अपशकुन एक ऐसा विशवास जोकि हंगेरियन नियति की देवी अनान्के  का उपाख्यान बन चुका है।  कई सदियों से एक परिवार इस अभिशाप से पीड़ित है , यह अभिशाप उनके परिवार के हरेक सदस्य को प्रताड़ित करता है।  उनकी ज़मीन और पशु , उनके महूर्त , उनकी योजनाओं को और उन सब को भी प्रताड़ित करता है जिनका सम्बन्ध उस परिवार से है मसलन उन की बीवियाँ , रखैलें , नौकर और दोस्त। इस अभिशाप द्वारा लाई गयी दारुण विपत्ति की पुरानी सैकड़ों कहानियाँ धुंध की चादरों में खो चुकी हैं।  शायद उन अर्थहीन कहानियों के मूल तत्त्व भी मिट चुके हैं लेकिन फिर भी वे हमारी यादों में शेष हैं।  अगर कोई भी किसी ज़रूरत से या फिर सिर्फ़ स्मरण करते हुए इस नाम को अपने होठों पर लाएगा और फिर उसके फौरन बाद एक ही साँस में तीन बार एक दूसरे भाग्यशाली परिवार का नाम नहीं लेगा तो उस दिन ज़रूर कोई दुर्घटना होगी ....कोई दुश्मनी निकालेगा   या कुछ नुक्सान हो जाएगा। 


और मुझे याद है कैसे यह शब्द मेरे बाल मस्तिष्क में विचरण करता रहा था , जब वे मुझे उस के घर ले गए थे। उस गोधूलि बेला में मैंने उसे लकड़ी  के फ्रेम में जड़ी एक तस्वीर की मानिंद , एक अजीब सख़्त पत्थर की तरह बैठे देखा था। इसी क्षण में सन्नाटे ने उसे लील लिया था।  


उस बड़े साफ़  बैठकघर में  नक़्क़ाशीदार बड़ी अल्मारियों और सजावटी क्रॉकरी वाले कपबोर्ड के नीचे मामूली दरी दबी हुई थी। यहाँ सब कुछ मामूली और ख़ाली ख़ाली  था , सब कुछ बिखरा हुआ , ग़मगीन। मैंने दो अजीब वस्तुओं की तरह उस बूढी औरत की दो सख़्त सफ़ेद कलाइयाँ देखी थी जो एक काले एप्रन में लिपटी बिना हिले -डुले लेटी हुई थी और जिसे किसी भी चीज़ से कोई लेना -देना नहीं था।  


उस धुंधली रौशनी में , मैं उसकी सूखी ठोड़ी की सख़्त  लकीर और अकड़ी हुई गर्दन के अलावा उसकी पीठ पर उभरता कूबड़ ही देख पायी थी। 



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस  

Monday, October 24, 2022

हंगेरियन गद्य का आंशिक हिन्दी अनुवाद

 Polixena Tant 


"मैंने प्यार किया था "-  लकड़ी की जाली के पीछे से उसने अचानक कहा था , कभी किसी को पता नहीं लगा , उसको सपने में भी इसका अंदेशा नहीं था।  वह एक मामूली आदमी था।  इस से तुम सब कुछ समझ सकती हो ....

पागलपन , पीड़ा उन्माद और सुंदरता , पैसा लुटाने वाला , दीवाना , छैल - छबीला , नष्ट होती जाति , मृत्यु तक नृत्य करते नर्तक , मंच पर आदिम रौशनी में अभिनय करते , झूटी अभिनूतियाँ , बचकानी उद्दंडता और गर्वित स्मृतियाँ। मुझे याद है मेरा किशोर व्यक्तित्व इस नए संसार में अधिक उर्वर और कल्पनाशील हो गया था। मैं इस से भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं थी। अधूरी जानकारी से अन्दाज़ा लगाते हुए मैंने समझा कि यह किसी व्यक्ति विशेष की सनक नहीं थी , यह अनुभव की तस्वीर का दूसरा पहलू था , कारण और विशवास , आम सच ,जीर्ण-शीर्ण हंगेरियन नियति की देवी अनान्के का अभिशाप। मैं कुछ इसी तरह की बाते सोचना चाहती थी लेकिन मैं उलझ कर रह गयी थी।



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस  

Sunday, October 9, 2022

मुखबरी कविता - मैं रिपोर्टर हूँ

 

 ( २९ अक्टूबर ' २००५ में दिल्ली की सरोजिनी नगर मार्किट में हुए बम विस्फोटों  की ख़बरों से प्रेरित कविता )


मैं रिपोर्टर हूँ 


हाँ , मैं मिडिया का रिपोर्टर हूँ 

इधर - उधर की 

सब तरफ की ख़बरें लाता हूँ 

बाल की खाल , खाल की बाल 

और फिर बाल की खाल निकलता हूँ 

काल - महाकाल की ख़बरें सुनाता हूँ 


मैं रिपोर्टर हूँ 

हाँ , मैं मिडिया का रिपोर्टर हूँ


मैं शमशान में भी मुस्कुराता हूँ 

चिताओं पर मृत्यु की धुन बजाता हूँ 

जब मुस्कुरा कर पूछता हूँ सवाल 

मुझसे डर जाता है महाकाल 


हैलो..... जी , मीडिया जी 

जी हाँ , मैं यहाँ शमशान से ही बोल रहा हूँ 

आपके लिए लाशों का पिटारा खोल रहा हूँ 


जी हाँ , सीरियल बेम विस्फोटों में मरे 

तमाम लोगो की लाशें यहाँ आ गयी हैं


हैलो , क्या कहा आपने , कफ़न ....


जी हाँ , कफ़न सब लाशों  पे ढका हुआ है

पर लकड़ियों को लेकर यहाँ कुछ लफ़ड़ा  है


- लफ़ड़ा , कैसा लफ़ड़ा ?


- वो मेडिया जी , वैसे तो लकड़ियों का गोदाम भरा पड़ा है

लेकिन अफ़सोस कि लकडिया गीली हैं

इन चिताओं की कहानी दर्दीली है  


- रिपोर्टर जी , आखिर ये चिताएँ गीली कैसे हुई ?


- मीडिया जी , गोदाम मालिक के अनुसार 

कल रात यहाँ बारिश हुई थी , 

जिसके कारण लकड़ियाँ  गीली हो गयी थी। 


- क्या कहा , बारिश , लेकिन कल रात तो दिल्ली में बारिश नहीं हुई। 


- जी मीडिया जी , असल में बात ये  है कि 

जब भी शहर में थोक में मौतें  होती हैं , 

उसी रोज़ शहर में बारिश हो जाती है 

और  लकड़ियाँ ख़ुद ब ख़ुद गीली हो जाती हैं। 


- अच्छा , अच्छा , ये बताये कि शमशान घाट में 

सब लोगो के दाह संस्कार के लिए 

पर्याप्त स्थान है या नहीं ?


देखिए मीडिया जी !

मैं शहर के सबसे बड़े  शमशान घाट 

निगमबोध घाट से बोल रहा हूँ 

यूँ तो दाह संस्कार के लिए यहाँ

काफी अच्छे इंतज़ामात हैं 

जलाने से पहले लाशों को 

गंगाजल से नहलाया जाता है 

उन्हें फूलों से सजाया जाता है 

लेकिन अक्सर जब भी थोक में  लाशें आती हैं 

जब ज़िंदगी ,मौत का मर्सिया गाती है 

यह शमशान भी छोटा पड़ जाता है 

यहाँ लाशों की लम्बी कतार है 

अफरा - तफरी का माहौल है 

पंडितो को लोग इधर उधर खींच रहे हैं 

पंडित मुहँ - मांगे दाम लूट रहे हैं 


- अच्छा , रिपोर्टर जी , ये बताये कि

अब तक कितनी चिताएँ तैयार हो चुकी हैं ?


- मीडिया जी , अभी तक सिर्फ पाँच चिताएँ तैयार हुई है। 


- बाक़ी चिताएँ कब तक तैयार होंगी ?


- उसमे अभी वक़्त लगेगा क्योंकि 

 जबसे सरकार ने 

मुआवज़े  की  रकम बढ़ा दी है 

यह कुछ लाशों के 

एक से अधिक दावेदार निकल आये हैं 

उनका दाह संस्कार DNA टेस्ट के बाद ही  होगा। 


- एक लाश के एक से अधिक दावेदार 

यह कैसे संभव है ?

ख़ैर , यह बताये कि बाक़ी  लाशो को 

कब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ?


- मीडिया जी , यह हिन्दुस्तान है 

यहाँ सब कुछ संभव है 

यहाँ यमराज को भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है 

जैसे जैसे रात गहराती जा रही है 

लोगो की बेचैनी  बढ़ती जा रही है 

लाशों के सामूहिक 

दाह संस्कार की बात उठ रही है 

सर्वसम्मति से कुछ ही देर में

बाक़ी लाशों का 

सामूहिक संस्कार कर दिया जायेगा 

दिल्ली का निगमबोध घाट 

जगमगा उठेगा 

और महाकाल 

वही चिर परिचित 

मृत्यु गीत जाएगा। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस



NOTE :  पुराने काग़ज़ों में एक ख़बरी  कविता मिल गयी तो मन हुआ कि मित्रों से साझा कर लूँ। 

मैंने चंद कविताएँ ख़बरों से प्रेरित हो कर लिखी हैं।  यह कविता उसी सिलसिले की एक कड़ी है।




Saturday, October 1, 2022

ग्रुनेवाल्दी में बिताये साल का दस्तावेज़ - हंगेरियन गद्य का आंशिक अनुवाद

 ग्रुनेवाल्दी में बिताये साल का दस्तावेज़ 


मैंने बहुत - सी बातों के बारे में निश्चय किया था और बहुत - सी बातो के बारे में निश्चय  नहीं कर पाया था।  मैं उस आने वाले साल में क्या करूँगा जो मुझे विशेनशाफ्टकॉलेग में किराये के मकान में बिताना है।  ईश्वर की मदद और सौभाग्य से वह सब कुछ पूरा नहीं हुआ जिसकी मैंने आखिर तक कोशिश की थी।  सबसे पहले मुझे ' पारहुज़ामोश ' शीर्षक कहानी पर काम शुरू करना था।  सब कुछ उसी तरह करना था जैसे कि घर पर करता था , दोपहर तक हमेशा काम में लगे रहना। दोपहर तक का यह समय मेरे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण था।  सुबह का नाश्ता अक्सर छूट जाता था और गपशप भी।  उठते ही एक बड़े कॉफ़ी के मग के साथ अपनी मेज़ पर आ जाना।  बाक़ी सब काम बंद।  न किसी को फ़ोन करना और न ही किसी से मुलाक़ात।, ख़बरें भी नहीं , इस समय किसी भी किस्म का शोर मुझे बर्दाश्त नहीं था।  


यह एक पागलपन और दीवानगी जैसा लगता था और वास्तव में ऐसा ही था।  पिछले दशकों में यही एक ऐसा तरीका था जोकि गद्य लेखन में निरंतरता कायम रखने के लिए ज़रूरी है।  ग्रुनेवाल्दी में स्थित मेरे स्टडी रूम का फर्नीचर मेरी सभी आवशयक ज़रूरतों के अनुकूल था।  सबसे ऊपरी मंज़िल के कमरे से चिनार व देवदार के पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को देखा जा सकता था।  काम करते हुए भी मैं कबूतरों की रहस्यमयी उलझन भरी ज़िंदगी का गहराई से अध्ययन कर सकता था , उनका घोंसला बनाने से नवजात पक्षियों के पंख फड़फड़ाने तक। 


दोपहर के भोजन के समय मैं अपने अनुभव अमेरिकी पक्षी विज्ञानी तेचुमेश फिच के साथ बाँटता था और मैंने उनसे यह भी सीखा था कि देखने लायक क्या क्या हो सकता है।  तेचुमेश के परिवार में किसी पूर्वज का भारतीय नाम रख दिया गया था और तभी से हर भारतीय परिवार के पहले बच्चे का अँगरेज़ी नाम रख दिया जाता है और वे आपस में दोस्त बन जाते हैं। 


खिड़की के नीचे , एक -दूसरे  से कुछ दूरी पर ड्राइंग की बड़ी मेज़ जैसे दो बोर्ड लगे हैं जो मेरे डेस्क का काम देते हैं।  उनमे से एक पर मैं अपने लेख बड़े करीने से सजा देता हूँ और दूसरे पर  मैंने अपना टाइपराइटर  और  कंप्यूटर रखा हैं जो हालांकि हंगेरियन भाषा में लिपिबध है लेकिन अपने मूड के मुताबिक यह कभी कभी अँगरेज़ी या जर्मन में कभी कभी एक ख़ास अंदाज़ में तीन भाषाओँ के मिश्रण में तब्दील हो जाता है। 


मैं पहले हाथ से लिखता हूँ और फिर उसे टाइप करता हूँ , हाथ से ही ग़लतियों को सुधारता  हूँ और फिर टाइप करता हूँ।  मैं तब तक टाइप करता रहता हूँ जब तक कि पूरी ग़लतिया सुधर नहीं जाती।  उसके बाद मैं उस लेखन सामग्री को कंप्यूटर में डालता हूँ।  सीधे कंप्यूटर में भरे गए साहित्यिक गद्यांशों की संरचना काफ़ी  बनावटी लगती है लेकिन फिर भी अपने इस ढाँचे में ये गद्यांश विशिष्ट दिखाई पड़ते हैं। 


इसका तात्पर्य यह नहीं कि लेखन कोई शिल्पकारिता या कारीगिरी है।  मेरे लेखन में दोपहर का भोजन अक्सर बाधक बनता और उस से भी बढ़ कर भोजन की मेज़  पर विभिन्न वैज्ञानिक विषयों पर विचार - विमर्श और हर मंगलवार को वैज्ञानिक संगोष्ठियों का आयोजन। सामूहिक भोजन करने के कारण मेरे लेखन की अवधि भी कम हो जाती थी और मंगलवार को तो काम शुरू करने का प्रश्न ही नहीं उठता।  अपनी कार्यविधि को पूरा करने के लिए मैं हर सुबह नियत समय से पहले उठता लेकिन रात को कभी भी जल्दी नहीं सो पाता। मैं  मंगलवार की संगोष्ठियों में भी सम्मिलित होना चाहता था।  


मैं भाषणों की विवेकपूर्णता और स्वरूपता से अत्यंत प्रभावित हो जाता , वाद विवाद काफ़ी गंभीर स्तर का होता  और उसके बाद सामूहिक शानदार भोजन।  नवंबर में जब  मेरी पुस्तक " ओन डेथ " का विमोचन हुआ तो प्रशंसा और जिज्ञासा के बावजूद यह स्पष्ट हो गया था कि  कथित सत्य और कथित सुंदरता के बीच एक गहन रसातल है। 


वैज्ञानिक कार्यप्रणाली में मेरी अपनी भाषा बिखर रही थी।  अपना लेख पढ़ने के बाद चिकित्सा दार्शनिक बेतिना  इस्कोनस्यीफर्ट  और ब्रह्मविज्ञानी क्रिस्तोफ़ मार्कशाई के साथ मेरा वाद - विवाद हुआ जिसमे मैं अकेला पड़ गया।  आपसी सद्भावना और सहनशीलता निरर्थक हो गयी थी।  साधन , प्रणाली , भाषा प्रयोग अचानक सब कुछ बदला हुआ लग रहा था। 


मूल लेखक - Péter Nádas

जन्म -  14th October ' 1942, Budapest 

अनुवाद - इन्दुकांत आंगिरस