कागा और अतिथि
आज सुबह सुबह जब छत की मुंडेर पर कागा काँव काँव बोलने लगा तो मैंने पत्नी से कहा - " लगता है आज कोई अतिथि आएगा "
- "आपको मालूम है कि जब से आप रिटायर हुए है और जब से आपके पैसे ख़त्म हो गए हैं तब से कोई रिश्तेदार इधर झांकता भी नहीं। बेटे - बहू विदेश में बैठे हैं , वो तो उड़ के आने से रहे। " - पत्नी ने मेरे वक्तव्य पर लम्बी टिपण्णी करी। मैं कुछ पल के लिए ख़ामोश हो गया कि तभी कागा की काँव काँव दोबारा और भी ऊँची और स्पष्ट।
" सुना तुमने , आज ज़रूर कोई अतिथि आएगा " - मैंने विशवास भरे स्वर में कहा।
" आप कौन से ज़माने में जी रहें हैं। २१ वी सदी है ये। आदमी चाँद पर जा पहुँचा है और आप अभी तक कागा की काँव काँव और अतिथि की रट लगाए बैठे हैं। "
अभी पत्नी ने बात ख़त्म ही करी थी कि उसका फ़ोन घनघना उठा। आई थी ख़ुशख़बरी विदेश से। बेटी के बिटिया हुई थी। पत्नी नानी और मैं नाना बन गया था।
कागा की काँव काँव थी सच्ची। नया अतिथि आया था अपने ही परिवार में , चाहे हज़ारों मील दूर ही सही।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
No comments:
Post a Comment