बेख़ुदी में भी बेकली सी है
राख सीने में कुछ दबी सी है
दिन है जलते हुए फफोले सा
रात ठहरी हुई नदी सी है
हर तरफ़ तीरगी है वैसे तो
दिलजले हैं तो रौशनी सी है
रात भर ख़ुद जला तो ये पाया
इश्क़ की आग कुछ नयी सी है
याद फिर आ गया तेरा मिलना
आज आँखों में कुछ नमी सी है
उठ रहा है धुआं शरारों से
आग दिल में भी कुछ लगी सी है
आग ढूंढों नहीं 'रसिक ' इस में
रौशनी आज रौशनी सी है
शाइर - रसिक देहलवी
No comments:
Post a Comment