दोआबा
गंगा और जमुना के बीच का ये
' दोआबा '
था कभी बहुत ख़ुशहाल और हरा - भरा
हिन्दी और उर्दू ज़बानों की मानिंद
लेकिन आज इसका बदन ही नहीं
इसकी रूह भी ज़ख़्मी है ,
ख़ून के छींटों ने बदरंग बना दिया इसे
एक खूं ख़्वार जंगल बना दिया इसे
जहाँ प्यासे है सब जानवर
एक दूसरे के ख़ून के ,
वही जानवर जो शायद कभी इंसान थे
बन्दे थे ख़ुदा के , आदम की पहचान थे
जो पानी मांगने पर आब लाते थे
चाँद की झोली में महताब लाते थे
जिनके ख़्वाब सपनों में ढल जाते थे ,
अब पानी भी है और आब भी
फिर भी सब हैं प्यासे
एक - दूसरे के ख़ून के प्यासे ,
कैसी प्यास हैं ये
जो जला रही है मोहब्बत के ख़तूत
इंसानियत के सब सबूत ,
गंगा - जमुना के बीच का
वही ख़ुशहाल दोआबा
फलता फूलता रहे तो बेहतर है
गंगा - जमुनी तहज़ीब
इक - दूजे में घुलती रहे तो बेहतर है ,
मुझे डर है
ये दोआबा , मरघट कही न बन जाए
हम सब प्यासे कही न मर जाएँ,
गर ऐसा हुआ तो
गंगा और जमुना का पानी
रोएगा अपनी क़िस्मत पर ।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
मर्मस्पर्शी कविता
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Deleteबहतरीन भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteभावभीनी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमार्मिक अभिव्यक्ति।
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