Saturday, October 29, 2022

वसंत का ठहाका - दोआबा

दोआबा


गंगा और जमुना के बीच का ये

 ' दोआबा '

था कभी बहुत ख़ुशहाल और हरा - भरा

हिन्दी और उर्दू ज़बानों की मानिंद

लेकिन आज इसका बदन ही नहीं

इसकी रूह भी ज़ख़्मी है ,

ख़ून के छींटों ने बदरंग बना दिया  इसे

एक खूं ख़्वार जंगल बना दिया  इसे

जहाँ  प्यासे है सब जानवर

एक दूसरे के ख़ून के ,

वही  जानवर  जो शायद कभी इंसान थे

बन्दे थे ख़ुदा के , आदम की पहचान थे

जो पानी मांगने पर आब लाते थे

चाँद की झोली में महताब लाते थे

जिनके ख़्वाब सपनों में ढल जाते थे ,

अब पानी भी है और आब भी

फिर भी सब हैं प्यासे

एक - दूसरे के ख़ून  के प्यासे ,

कैसी प्यास हैं ये

जो जला रही है मोहब्बत के ख़तूत

इंसानियत के सब सबूत ,

गंगा - जमुना के बीच का 

वही   ख़ुशहाल दोआबा

फलता फूलता रहे तो बेहतर है 

गंगा - जमुनी तहज़ीब

इक - दूजे में घुलती रहे तो बेहतर है ,

मुझे डर है 

ये दोआबा , मरघट  कही न बन जाए

हम सब  प्यासे कही न  मर जाएँ,

गर ऐसा हुआ तो 

गंगा और जमुना का पानी

रोएगा अपनी क़िस्मत पर ।




कवि - इन्दुकांत आंगिरस 



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