Tuesday, November 15, 2022

ग़ज़ल - डूबती इक सुबह का मंज़र हूँ मैं

 डूबती इक सुबह का   मंज़र हूँ मैं

वक़्त का चलता हुआ चक्कर हूँ मैं 


कोई दरवाज़ा न कोई रौशनी 

तीरगी का एक सूना घर हूँ मैं 


दाग़ सीने में लिए फिरता रहा 

देखिये फूलों की एक चादर हूँ मैं 


दिल में रखी है किसी की मूर्ति

एक छोटा प्यार का मंदर हूँ मैं


आप भी चाहे तो ठोकर मार लें 

बारहा   तोडा गया   पत्थर हूँ मैं


लूटने का कब मुझे आया हुनर 

एक खस्ताहाल सौदागर  हूँ मैं 


हर कोई हैं मेरे साये में ' बशर '

हर तरफ फैला हुआ अम्बर हूँ मैं



शाइर - बशर देहलवी 



No comments:

Post a Comment