Sunday, December 18, 2022

कहानी - दूसरी औरत

 दूसरी औरत


बचपन कभी लौट कर नहीं आता लेकिन बचपन की यादें हमे ज़िंदगी भर सताती रहती हैं। वे भी क्या दिन थे , न कोई फ़िक्र न कोई बोझ , उन दिनों स्कूल का बस्ता भी हल्का -फुल्का ही होता था। अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में अपने मामू के यहाँ चला जाता , जो पुलिस में इंस्पेक्टर थे। लगभग हर साल उनका तबादला होता रहता और इस बहाने मुझे नए - नए कस्बों या शहरों में घूमने को मिलता। मेरी ख़ूब आवभगत होती , पुलिस की जीप में घूमता और ख़ुद को किसी इंस्पेक्टर से कम न समझता। दूध - मलाई और देसी घी ख़ूब मिलता और अक्सर उनके यहाँ बिताई एक महीने की छुट्टी में मेरा वज़न बढ़ जाता।

मामू के दो बेटे मेरी हमउम्र थे। बड़े का नाम नरेंद्र उर्फ़ मुन्नू और छोटे का नाम सुरेंद्र उर्फ़ चुन्नू । चुन्नू कुछ कम-दिमाग़ था लेकिन मुन्नू उतना ही शातिर और अक़्लमंद। मुन्नू अपने को किसी दरोगा से कम नहीं समझता। मामू की रोयलनफील्ड पर मुझे बिठा कर शहर की ख़ूब सैर कराता। बाज़ार में किसी भी दुकान से कुछ भी मुफ़्त में सौदा -सुल्फ़ लेता। सब उसे इज़्ज़त देते और मुन्नू भाई कह कर पुकारते तो कुछ लोग उसे छोटे दरोगा कह कर बुलाते । कसी की इतनी मजाल नहीं थी कि उससे सौदा के रूपये मांगता बल्कि सौदे के साथ 10-20 रूपये उसको फ़िल्म देखने के लिए भी दे देते। उसकी उम्र अभी 16 साल की थी लेकिन उसके शौक़ उसकी उम्र से बड़े थे। कस्बों के मामूली सिनेमा हॉल में फ़िल्मे देखना , कभी कभी ताश की बाज़ी , जीते तो वाह वाह और हार गए तो उधार , किसी की मजाल न थी कि उससे जुए के हार के रुपएवसूल करता। फ़िल्मों के अलावा नौटंकी , नुमाइश और शाम होते होते थोड़ी शराब।

शराब के दो घूँट अंदर जाते ही मुजरे की राह। रंगीन शाम का रंगीन नज़ारा , तबले की थाप और सारंगी की आवाज़ फ़िज़ा में घुलने लगती। बेला , चमेली के फूल नर्तकी के गजरे से झरते रहते। कमरे में एक मदहोशी पसर जाती। मदिरा की महक और सिगरेट का धुआं वाह.. वाह.. के शोर में लिप्त रहता। हवा में उछलते फिकरे - क्या बात है मुन्नी बाई....ज़ोर बलम न कीजो मुझपे...मैं हूँ तुमरी पुजारिन... बाहँ पकड़ न लीजो मोरी .. मैं हूँ तुमरी पुजारिन। मुजरा ख़त्म होने के बार मुन्नू नचनिया के शयनकक्ष में खिसक जाता और में बैठक मैं जगमगाते फ़ानूसों की रौशनी में खो जाता। उनसे छनती रौशनी दीवारों पर अप्सराओं के चित्र उकेरती। ऐसा आभास होता मानो मैं किस इंद्रसभा में बैठा हूँ।

काफ़ी देर बाद मुन्नू नचनिया के शयनकक्ष से बाहर आता और रात के अँधेरे को चीरते हुए हम अपने घर लौट जाते। घर में देर से पहुँचने का डर हमे नहीं था क्योंकि मामू अक्सर दौरे पर होते और मामी तब तक अक्सर सो रही होती। हाँ , जब मामू शहर में होते तो मुन्नू शाम ढले ही घर आ जाता। मामी को सब दरोगन कहते और मामी इस लफ़्ज़ के नशे में डूबी रहती। उसे भी इस बात की सुध नहीं रहती कि उसके बच्चे उसके हाथ से निकल रहे हैं ।


उस दिन मामू कोतवाली में हाज़िर थे , सभी सिपाही और हवलदार चुस्त दीखते , इधर से उधर दौड़ते - फिरते ,

कोतवाल साहिब को सभी मक्खन लगा रहे होते। तभी एक ग़रीब औरत रोटी - बिलखती थाने में घुसी ,उसके साथ

उसका बेटा भी था जिसकी उम्र लगभग तीन साल रही होगी। कोतवाल साहब को देखते ही वह ज़ार - ज़ार रोने लगी -

" हजूर , मुझे बचा लीजिये , मेरा सब कुछ लुट गया है "

" रोना बंद कर और ठीक से बता , क्या हुआ तेरे साथ ";- कोतवाल ने झिडकते हुए कहा।


" हजूर मेरे शौहर ने मुझे ,मेरे बच्चे समेत घर ने निकाल दिया है "

"क्यों निकाल दिया तुझे ? "

"हजूर , दूसरी औरत को घर ले आया है , अब आप ही बताये इस भरी दुनिया में इस बच्चे को लेकर कहाँ जाऊँ ?"

" पर तुम्हारे मज़हब में तो चार औरते रखना जायज़ है "

" जी जनाब ,पर उसने उससे निकाह नहीं किया है , बल्कि ऐसे ही उठा लाया है और मुझे घर से निकाल फैका है। कुछ

कीजिए हजूर ,मैं ….शौहर के रहते बेवा की ज़िंदगी नहीं जी सकती "

"हूँ ...कोतवाल ने लम्बी साँस खींच कर हवलदार को तलब किया - रंग बहादुर , अभी उठा के ला इसके शौहर को "

रंग बहादुर कोतवाल के हुक्म की तामील करने निकल पड़ा। उधर कोतवाली के पीछे ही घर के दरवाज़े से दो शातिर आँखें झाँक रही थी, मुन्नू की शातिर और कामुक आँखें उस औरत का मुहायना कर रही थी। उसके दिल में ज़रूर उस औरत को पाने की कामना जाग उठी होगी , औरत उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी थी। कुछ ही वक़्त गुज़रा होगा कि रंग बहादुर उस औरत के शौहर को उठा कर ले आया था।

उस दुबले - पतले इंसान को देखकर कोतवाल को भी कुछ हैरानी हुई। यूनुस उम्र में भी उस औरत से कुछ बड़ा ही लग रहा था , चेहरे पर हलकी सी ढाढी , पिचके गाल और पके हुए बाल। कोतवाल को लगा कि अगर वो उसे एक झापड़ रसीद कर दे तो शायद वही ढेर हो जायेगा यूनुस। उन्हें कुछ आश्चर्य भी हुआ कि कैसे एक फटीचर सा आदमी दो दो औरतों को पालने की सोच रहा है। कोतवाल साहिब ने उसे ज़ोर से हड़काते हुए पूछा -

“क्या नाम है तेरा “?

“यूनुस , हुज़ूर “ ।

“ये औरत तेरी बीबी है “ ?

“ जी , हुज़ूर ..”

“और ये औलाद भी तेरी है “? कोतवाल ने लड़के की तरफ़ इशारा करके पूछा।

“ जी हुज़ूर “ ।

“ तू दूसरी औरत को घर ले आया और अपनी बीबी को घर से निकाल रहा है “ ?

“जी नहीं हुज़ूर , मैं तो ...मैं ....”

“ क्या मैं..मैं लगा रखी है “

“ हुज़ूर मैंने इसे घर से नहीं निकाला , मैं तो इसे भी रखने को तैयार हूँ “।


“ क्या काम करता है ?”


“ कुछ नहीं हुज़ूर “

“ कुछ नहीं , तो फिर दो दो औरतों को खिलायेगा कहाँ से “ ?

“ हुज़ूर , मैं नहीं , ये मुझे खिलाएंगी “।

“ मतलब ....? “

“ मतलब यही हुज़ूर अब इसकी अकेली कमाई से मेरे घर का खर्च नहीं चलता , इसीलिए मैं दूसरी औरत को घर लाया हूँ। पर ये समझती ही नहीं है , कहती है या तो वो रहेगी या फिर मैं “।

“और अगर दो की कमाई से भी तेरे घर का खर्च नहीं चला तो तीसरी उठा लाएगा ?”

“नहीं हुज़ूर , अभी 5-7 साल इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। सलमा अभी जवान है , खूब डटकर काम करेगी “।

“और बाद में …..”

तभी कोतवाल साहब का फोन खनखनाया - “ यस सर , मैं अभी हाज़िर होता हूँ , आधे घंटे में “। एस पी साहिब का

बुलावा था , कोतवाल को जाना लाज़मी था। उन्होंने हड़काते हुए यूनुस से कहा -“ इसे अपने साथ घर लेकर जा , और अगर कोई शिकायत सुनने को मिली तो कुटूंगा बहुत और जेल में सड़ा दूंगा “।

फिर उस औरत को मुखातिब होकर बोले – “ जाओ इसके साथ घर में और एडजस्ट करके रहो “।

दरवाज़े से लगी दोनों आँखें एक बार फिर से चमकी और ग़ायब हो गई। यूनुस की बीबी मन मारकर अपने शौहर के साथ चल पड़ी। वह बड़बड़ाती हुई जा रही थी। गालियाँ किस को निकाल रही थी , समझना मुश्किल था , शायद सभी को..........


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लेखक - इन्दुकांत आंगिरस


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