Saturday, December 10, 2022

कहानी - पेंशन

कहानीपेंशन


वह  इतने ज़ोर से चिल्लाई थी कि मैं सकपका गया । अपने जवान बेटे को गालियाँ  दे रही थी और उसका वो शरीफ़ बेटा भी आज गर्म मिज़ाज़ में  था और अपनी अम्मी पर चिल्ला रहा था । दरवाज़ा पर गिरा पर्दा उनके कमरे से उठती  आवाज़ों को नहीं रोक पा रहा था ।मैं  उनकी हैदराबादी झगड़ालू  ज़बान का लुत्फ़ भी उठा रहा था  और कुढ़ भी रहा था कि मुझे उनकी पूरी बात समझ नहीं आ रही थी । उनकी चीख़ती  हुई आवाज़े ट्रैफिक के शोर को चीरती हुई कभी पूरी तो कभी आधी मेरे कानो के ज़रिये मेरे दिल में  उतरती जा रही थी । मेरी रगों मैं बहते ख़ून की  रफ़्तार बढ़ गयी थी कि तभी दरवाज़े के बाहर लटका पर्दा दरवाज़े के पीछे चला गया और एक भयंकर  आवाज़ के साथ दरवाज़ा बंद कर दिया था रेहाना ने ।अब मैं सिर्फ़ टूटी - फूटी अस्पष्ट आवाज़े सुन पा रहा था । उनके लफ्ज़ अब उस कमरे मैं क़ैद  हो गए थे जिन्हे या तो वो सुन सकते थे या फिर उनका अल्लाह ।


हाँ  , वही अल्लाह जिसने चार बरस पहले रेहाना की ज़िंदगी का दरवाज़ा बड़ी बेरहमी से हमेशा के लिए बंद  कर दिया था । उसके शौहर की एक  साम्प्रदायिक दंगे  में  मौत हो गयी थी । एक बेवा की ज़िंदगी किसी अज़ाब से कम नहीं । उसका शौहर  बस एक दिहाड़ी मज़दूर था तो पेंशन का तो सवाल ही नहीं उठता क्यों कि दिहाड़ी मज़दूर को महाना तन्खॉह नहीं मिलती । उनको दिहाड़ी की हिसाब से मज़दूरी मिलती  अगर महीने में बीस दिन काम किया है तो बीस ही दिन की मज़दूरी मिलेगी ।

रेहाना जवान थी नैन नक्श भी बुरे न थे , किसी पुरुष को आकर्षित करने के लिए उसका सुडौल  बदन ही काफी था । अनपढ़ होना उसकी  नियति नहीं थी , उसके कबाड़ी बाप के पास बच्चे पैदा करने के अलावा कोई काम न था , और उन्हें पैदा करने के बाद वह उन्हें अक्सर भूल जाता था  । बीड़ी के धुएँ में ज़िंदगी की हर फ़िक्र को उड़ाए जाता था । किस तरह  उसकी अम्मी न उसे पाल -पोस कर बड़ा तो कर दिया लेकिन उस पढ़ा नहीं पाई । अम्मी ने वक़्त आने पर उसकी शादी  भी कर दी लेकिन शादी का लम्बा सुख उसकी क़िस्मत  में न था ।


आखिर कुछ  दिनों की मातमपुर्सी के बाद रेहाना ने फ़ैसला किया कि वह घरों में चौका बर्तन और खाना बनाने का काम करेगी।  बुरका पहनकर  जाने से उसे हिन्दू घरों में काम मिलना मुश्किल था ।इसलिए  उसने   आपने बुरका उतारा और बक्से में संभाल  कर रख दिया ।अब इसकी ज़रूरत नहीं थी । हिन्दू घरों में काम पाने के लिए उसने अपना नाम भी बदल लिया और मोहल्ला भी ।


संगीत के सात सुरों  से उसका कोई लेना देना नहीं था लेकिंन संगीता नाम में एक धमक थी सो उसने संगीता नाम की नाम प्लेट अपने गले में लटका ली । स्वादिष्ट खाना बनाने के लिए लिखाई -पढाई की ज़रूरत नहीं । कुछ औरते अपने परिवार में ये सब सीख लती है । संगीता स्वादिष्ट  खाना बनाती थी और माँसाहारी  खाने का तो जवाब ही नहीं । उसके स्वाद खाने की सब तारीफ़ करते विशेष रूप से घर के मर्द ।  खाने की तारीफ़ करते करते उँगलियाँ  चाटने लगते , उनका बस चलता  तो बावर्चिन  की उंगलियन भी चाटने लगते ।अक्सर घरों में काम करने वाली नौकरानियों की उँगलियाँ खुरदरी हो जाती हैं लेकिन खुरदरी उँगलियों का भी एक अलग मज़ा है।

उसने सोचा  था कि किसी तरह घरों में मेहनत -  मज़दूरी   करके  इज़्ज़त  की दो रोटी मिल जाएगी , लेकिन इस देह का क्या करे , इसकी अपनी ज़रूरतें  होती हैं। रेहाना की देह भी हाड -मांस की बनी थी , वसंत की सरगम उसकी रगों को छेड़ती रहती, नागिन -सी काली घटाएँ उसके जवान जिस्म को डसती  रहती , इस नागिन के ज़हर से उसका बदन जलने लगता और वह एक अँगीठी की मानिंद सुलग उठती।


उस दिन बहुत बारिश हो रही थी लेकिन रेहाना का बदन भट्टी की तरह सुलग रहा था। उसके होंठों पर आज शरारत भरी मुस्कान तैर रही थी , फ़िल्मी प्रेम गीत फ़ज़ा में गुनगुना रहे थे कि तभी उसके फ़ोन की घंटी बजी और उसने बिजली की फुर्ती से फ़ोन उठाया -

हेलो , हाँ , कहाँ हो ? "

" यहाँ पहुँच गया हूँ , बस स्टॉप  पर खड़ा हूँ लेकिन बारिश बहुत हो रही है।  बारिश रुकते ही आता हूँ। "

" नहीं , नहीं , बारिश रुकने की इन्तिज़ार मत करो , कोई ऑटो पकड़ कर फ़ौरन  आ जाओ , अच्छा वही रुको , मैं आती हूँ ऑटो लेकर "

उसे डर था कि वह ऑटो का इन्तिज़ार में वक़्त बर्बाद न कर दे और कही उसे ऑटो वाला चक्कर न कटाता रहे  क्योंकि आज उसके लिए एक एक पल क़ीमती था। उसका बेटा  आज स्कूल पिकनिक पर  गया था और शाम से पहले नहीं लौटने वाला था। इसलिए उसने

अफ़रातफ़री  में  एक टूटी छतरी उठाई और एक ऑटो करके अपने यार को लेने निकल पड़ी। १५-२० मिनट में ही वह अपने यार को लेकर वापिस आ गयी थी और अपने घर का दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर लिया था।

" लो पहले कपडे बदल लो , नहीं तो ठण्ड लग जाएगी " - रेहाना ने रमन को  तौलिया पकड़ाते हुए कहा।


रमन तौलिया पकड़ बाथरूम में घुस गया और रेहाना अपनी लटों में उँगलियाँ घुमाते  हुए सोचने लगी  , कितना दिलकश और  बांका है रमन , काश  वह कुंवारा होता तो वह ज़रूर उससे शादी बना लेती।  हालांकि रमन ,रेहाना से उम्र में दस साल बड़ा था। उसके पास एक क़ानूनी बीवी और दो बच्चे थे।  रेहाना से यह उसकी तीसरी  मुलाक़ात थी।  पहली मुलाक़ात विधवा पेंशन के दफ़्तर में हुई थी , रमन ने पेंशन  के दफ़्तर में मुलाज़िम था और उसने रेहाना को पेंशन   दिलवाने में मदद करने का वायदा किया था। उनकी दूसरी मुलाक़ात एक लॉज  में हुई जिसमे  सारे पर्दें गिर चुके थे इसलिए अब उनके बीच औपचारिकता जैसी कोई बात नहीं रह गयी थी।  रेहाना जानती थी कि रमन से उसकी शादी नहीं हो सकती लेकिन फिर भी वह उसे पाने के लिए बेताब रहती थी। बाथरूम से बाहर निकलते ही रेहाना ने उसे एक शेरनी की तरह  दबोच मारा -

" अरे , क्या कर रही हो , रुको तो एक मिनट  "

" मुझे नहीं रुकना , जल्दी करों , बेटा कभी भी लौट सकता है "

" अगर इतना डरती हो तो मुझे बुलाया क्यों था ? "

" तुम समझते नहीं हो , पहले काम कर लो , बातें बाद में करना "

  शेरनी की पकड़ गहराती गयी और शिकारी ख़ुद शिकार हो गया।  घने बादलों में थमा पानी झर झर कर बहने लगा।  बारिश...और बारिश ...और बारिश।  बारिश में देर तलक भीगते रहे थे दो बदन।


- " तुम्हारे लिए एक ख़ुशख़बरी है " रमन ने अपना पसीना  पौंछते हुए कहा। "

- " क्या ख़ुशखबरी है ? जल्दी बताओ।  तुम्हारी  बीवी मुझे अपनी सौतन बनाने को तैयार हो गयी क्या ?"

- " रेहाना , मैं तुम्हे पहले ही बता चुका हूँ कि यह मुमकिन नहीं। "

 - तो फिर ?

- मैं तुम्हें ' विधवा पेंशन ' दिलाने के लिए अपने बॉस से बात कर आया हूँ।  अगले सोमवार को अपने काग़ज़ात लेकर आ जाना , अल्लाह ने चाहा तो तुम्हारी ' विधवा पेंशन ' तत्काल शुरू हो जाएगी।

- अच्छा , कितनी पेंशन मिलेगी ?

- ३०००/ हर   महीने।

घरों मैं चौका - बर्तन करने के बाद भी रेहाना का हाथ तंग रहता था , ऐसे में हर महीने अगर सरकार से ३०००/  मुफ़्त के मिलेंगे  तो इसमें बुरा क्या है ?वह घर के भाड़े , राशन और लड़के की पढ़ाई का हिसाब - किताब लगाने लगी।

ठीक है , कुछ तो राहत मिलेगी , मैं  इतवार को ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी , मेरे लिए एक होटल बुक कर देना।

- हाँ , होटल बुक कर दूँगा , अपने सब काग़ज़ात लाने मत भूलना।

- नहीं भूलूँगी , सब कुछ ले कर ही आऊँगी। कहकर रेहाना ने फिर रमन को अपनी बाहों मैं लपेट लिया।


अभी तोता -मैना अपनी चौंच भिड़ा ही रहा थे कि दरवाज़ा भड़भड़ा उठा। लड़का दरवाज़े पर अपने पैरों से ठोकर मार रहा था।दोनों ने ख़ुद को संयत किया और रेहाना ने उठ कर दरवाज़ा खोला।  खुले दरवाज़े  से रमन तीर की तरह  निकल गया।  लड़का रमन की एक ही झलक देख पाया था।  बेतरतीब बिस्तर को देख कर उसका लहू खौल गया और उसने अपनी अम्मी से चीख़ कर पूछा था -

" अम्मी , कौन था ये सूअर की औलाद ओर हमारे घर में क्यों आया था ? "

" कोई नहीं बेटा , वो पेंशन अधिकारी था और पेंशन के काग़ज़ात चेक करने आया था "


१४ साल का हमीद अब बच्चा नहीं था। बिस्तर की बेतरतीब सिलवटों का मतलब ख़ूब समझता था।  वह ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगा और उसकी माँ उसे गालियाँ सुना रही थी। कुछ देर बाद हामिद तमतमाता हुआ अपने दबड़े में से बाहर निकल सूनी झील की ओर बढ़ गया। उस रात वो तन्हा देर रात तक झील के किनारे  बैठा रहा था।  आसमान में सितारें चमक उठे लेकिन उनमे भी वो अपने अब्बू को नहीं ढूंढ पाया। उसके लिए यह ऐसी रात थी जिसका सवेरा शायद कभी न निकले। वह धीरे धीरे झील के गहरे पानी में उतरने लगा।  उसको तैरना तो आता था लेकिन आज वह डूब जाना चाहता था सो धीरे धीरे उसने ख़ुद को झील में डुबो दिया।

 

अगली सुबह झील की सतह पर तैरती हामिद की लाश  की  ख़बर बस्ती में पानी  की तरह फ़ैल गयी।  रेहाना ने अपनी छाती पीट पीट करमातमपुर्सी करी। आसमान की ओर मुँह कर ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगी - "या अल्लाह , तो मुझे ही उठा लेता। " लेकिन अल्लाह अपना काम बख़ूबी जानता है।  वह अपने पास वक़्त से पहले उन्हीं को बुलाता है जिन्हें वो प्यार करता है।

 

सोमवार को हामिद गुज़रा था। अगले कुछ दिनों तक रोते रोते  रेहाना के आँसू सूख गए थे ओर अब उस सहरा में उसके तमाम आँसू  ज़ज़्ब हो चुके थे।  अगले इतवार वायदे के मुताबिक़ रेहाना रमन से मिलने चली गयी। पेंशन से सम्बंधित सभी काग़ज़ात उसने संभाल कर रख लिए थे। उसके विचारों में उथल -पुथल मची हुई थी। इसी राह पर वह कई बार अपने शौहर के साथ घूमी थी लेकिन आज उसके साथ उसका

उसका शौहर नहीं बल्कि उसका डेथ सर्टिफिकेट था , जिसके बिना पर रमन उसे पेंशन दिलवाने वाला था।

वह सही वक़्त पर होटल पहुँच गयी ओर चेक इन भी कर लिया। अभी शाम के सात ही बजे थे।  रमन वायदे के मुताबिक़ आठ बजे आने वाला था। उसे मालूम है कि रमन वक़्त का पाबन्द है सो सही समय पर पहुँच जायेगा।  वह नहा - धो कर उसका इन्तिज़ार करने लगी।

 

आठ बजते ही रूम की घंटी  बजी।  उसने फुर्ती से दरवाज़ा खोला।  रमन के साथ एक आदमी और  था , दोनों शराब और कबाब लेकर आये थे।  

"ये मेरे बॉस  है रेहाना , यही तुम्हारी पेंशन बनवाएँगे " रमन ने अपने बॉस का परिचय करवाया।

" सलाम वालेकुम  " रेहाना ने अदब से बॉस को सलाम किया। जवाब में बॉस ने मुस्कुरा कर सर हिला भर दिया।

- "अपने काग़ज़ात तो दिखाओ , बॉस को "

- रेहाना ने अपने काग़ज़ बॉस की ओर बढ़ा दिए।

बॉस न एक नज़र काग़ज़ातों पर दौड़ाई ओर रमन से कहा - इनकी एक ज़ेरॉक्स कॉपी करा लाओ अभी।

कमरे से रमन के जाते ही बॉस ने भूखी  नज़रों से रेहाना  के सुडौल  जिस्म को निहारा ओर पलंग पर बैठते हुए इत्मीननान से बोला-

देखों , रेहाना , तुम्हारी पेंशन तो शुरू हो जाएगी पर बदले में हमे क्या मिलेगा ?

- रेहाना  ने एक पल चुप रह कर धीरे से पूछा - क्या चाहिए आपको ?

- हर महीने यहाँ आकर  एक बार हमे ख़ुश कर दिया करो , आने - जाने का भाड़ा ओर होटल का खर्च हम ही देंगें।

एक लम्बी चुप्पी के बाद रेहाना के मुँह  से बस इतना निकला - जी

बॉस ने रेहाना का हाथ अपने हाथों में लिया ओर उसके क़रीब खिसक गए।

- रमन ज़ेरॉक्स करा कर अभी आने वाले होंगे -  रेहाना ने हिचकते हुए कहा।

- ज़ेरॉक्स की सब दुकाने बंद है , वह अब सुबह ही आएगा।, उसके साथ अपने काग़ज़ात लेकर मेरे दफ़्तर आ जाना - कहते हुए बॉस ने रेहाना को अपनी बाहों में भर लिया।

 

 रेहाना अपनी आँखें बंद कर एक लम्बी काली रात के दर्द को किस्तों में जीती रही। 




लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


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