Saturday, December 10, 2022

वसंत का ठहाका - रहगुज़र

 रहगुज़र


गुज़र जाते हैं  मुसाफ़िर मुझ पर

करते हैं  तय अपना सफ़र

कभी कोई तन्हा 

कभी कोई क़ाफ़िला

मेरे सीने पे रख कर क़दम

करता है तय अपना सफ़र

कुछ को मिल जाती हैं  मंज़िले

कुछ भटकते रहते तमाम उम्र

मंज़िले भी तलाशती है दूसरी मंज़िले

पीड़ा का एक अंतहीन सफ़र,

बनती हूँ सबकी हमसफ़र

पर अंत  मैं रह जाती हूँ तन्हा

मैं हूँ एक जागती रहगुज़र

कभी भी ,कोई भी पुकार ले

मैं सदिओं से सोई नहीं हूँ

मुझे तो जागना ही पड़ता है

फिर चाहे वो

रहज़न हो या रहबर।  



कवि  - इन्दुकांत आंगिरस 







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