यादों के आईने में लगते रहे पराए
लेकिन नहीं गए वो दिल से मेरे भुलाए
दिल ढूंढ़ता है उनको दिन रात अब हमारा
जो हमसफ़र बने थे जो लौट कर न आए
इस दिल का रूठना भी है इक बड़ी मुसीबत
रूठे हुए दिलों को कैसे कोई मनाए
भूले से भी कभी तुम दिल पर न चोट करना
है इक यही मकां जो बनता नहीं बनाए
कुछ बात की न उसने और न मुझे बुलाया
जाऊँ मैं दर पर उसके कैसे बिना बुलाए
मुड़ ही गए क़दम तो उनको ' बशर ' न रोको
ये रास्ता भी शायद घर को उसी के जाए
शाइर - बशर देहलवी
No comments:
Post a Comment