Saturday, October 29, 2022

ग़ज़ल - यादों के आईने में लगते रहे पराए

 यादों के  आईने   में लगते  रहे पराए

लेकिन नहीं गए वो दिल से मेरे भुलाए


दिल ढूंढ़ता है उनको दिन रात अब हमारा 

जो हमसफ़र बने थे जो लौट कर न आए 


इस दिल का रूठना भी है इक बड़ी मुसीबत 

रूठे   हुए दिलों   को   कैसे   कोई मनाए 


भूले से भी कभी तुम दिल पर न चोट करना 

है   इक यही   मकां जो बनता   नहीं बनाए 


कुछ बात की न उसने और न मुझे बुलाया 

जाऊँ मैं दर पर उसके कैसे बिना बुलाए 


मुड़ ही गए क़दम तो उनको ' बशर ' न रोको 

ये   रास्ता भी   शायद    घर को उसी के जाए



शाइर - बशर देहलवी 


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