धुआं सा बन के मुझे फिर बिखर ही जाना है
जिधर से आया था मैं फिर उधर ही जाना है
हर एक बात वो कहता तो है यक़ीं से मगर
मैं जानता हूँ कि उसने मुकर ही जाना है
भड़क उठी है जो सीने मैं आग फुरकत की
उसे भी दिल को जला कर गुज़र ही जाना है
गुज़र ही जाएगी ये रात भी किसी सूरत
चढ़ा हुआ है जो दरिया उतर ही जाना है
बुला रहा है मुझे हर कोई करीब अपने
मैं जानता हूँ कि मुझको बिखर ही जाना है
समझ में ये नहीं आता कि बरहमी क्यों है
सराए फ़ानी से सबको गुज़र ही जाना है
वो मान जाएँगे , आएंगे , पास बैठेंगे
मेरी दुआ ने ' बशर ' काम कर ही जाना है
शाइर - बशर देहलवी
No comments:
Post a Comment