Monday, November 14, 2022

ग़ज़ल - हर घडी इक आग सी सीने में मेरे है लगी

 

हर घडी इक आग सी सीने में मेरे है लगी 

लम्हा लम्हा जागती है मेरे दिल की तश्नगी 


ग़ैर के आँचल से क्या   उम्मीद रखूँ दोस्तों 

हो सकी न जब हमारी रौशनी अपनी ठगी 


सोचता हूँ छिन  न जाये मुझ से वो मेरी ख़ुशी

ढूँढ कर लाई है जिसको   आज मेरी ज़िंदगी  


कल फ़लक से रौशनी का कारवाँ गुज़रा कोई 

चाँदनी भी जिस के आगे रह गई गुमसुम  ठगी 


दिल में  रखी है   बसा कर जो भी सूरत ऐ ' बशर '

हर किरण में उस की सूरत हू ब हू  मुझ को लगी 


शाइर - बशर देहलवी 



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