Sunday, December 15, 2024

शहर और जंगल - दरख़्त

 दरख़्त


तपती रेत पर  चलते मुसाफ़िर 

जब एक बड़े दरख़्त की छाया में 

ठहर गए 

दरख़्त फूला न समाया 

पत्तों का बिछौना बिछाया 

पर यह क्या ?

धूप ढलते ही  मुसाफ़िरों ने 

दरख़्त की तमाम शाख़ाएँ  काट दी 

लेकिन फिर भी न गिरा पाए 

उस दरख़्त को 

जिसकी मजबूत जड़ें 

एक दूसरे से लिपटीं 

हर तूफ़ान का ज़ोर नाकाम कर 

फिर उगा   लेती हैं  नयी नयी शाख़ाएँ

फिर उगा   लेती हैं रंग - बिरंगे फूल 

फिर फूँक देती हैं प्राण 

मृत्यु के हृदय में 

इन रंग - बिरंगे फूले से ढके दरख़्त को 

इन ठोस मजबूत जड़ों को 

हमारा शत शत प्रणाम। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस   

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