दरख़्त
तपती रेत पर चलते मुसाफ़िर
जब एक बड़े दरख़्त की छाया में
ठहर गए
दरख़्त फूला न समाया
पत्तों का बिछौना बिछाया
पर यह क्या ?
धूप ढलते ही मुसाफ़िरों ने
दरख़्त की तमाम शाख़ाएँ काट दी
लेकिन फिर भी न गिरा पाए
उस दरख़्त को
जिसकी मजबूत जड़ें
एक दूसरे से लिपटीं
हर तूफ़ान का ज़ोर नाकाम कर
फिर उगा लेती हैं नयी नयी शाख़ाएँ
फिर उगा लेती हैं रंग - बिरंगे फूल
फिर फूँक देती हैं प्राण
मृत्यु के हृदय में
इन रंग - बिरंगे फूले से ढके दरख़्त को
इन ठोस मजबूत जड़ों को
हमारा शत शत प्रणाम।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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