शहर और जंगल
एक शहर और जंगल में
बुनियादी फर्क बस इतना है कि
झरनें
यूँही फूट पड़ते हैं जंगल में
और शहर आ कर
क़ैद हो जाते हैं
पीतल के नलों में
हवा
यूँही तैरती फिरती है
पेड़ों की शाख़ों पर
और शहर आ कर
क़ैद हो जाती है
सीलन भरी तंग कपठरियों में
जानवर
घुमते हैं जंगल में नंगे
और शहर आ कर
ओढ़ लेते हैं लिबास
जंगल में
बिना तालीम के
आ जाता है सलीक़ा
और शहर में
बड़ी - बड़ी डिग्रियाँ ले कर भी
लोग रह जाते हैं
बेअदब
जंगल के जानवर
बाँट लेते हैं दर्द
अपनी गूँगी बेहरी भाषा में
और शहर में
लम्बी लम्बी ज़बान
और बड़े बड़े कान
लगा कर भी
नहीं गिरा पाते
छोटी -छोटी दीवारें
एक जंगल तो शहर बन सकता है
पर शहर जंगल नहीं
यों जंगल जंगल ही रहे
तो बेहतर है
झरनें यों ही बहते रहें
तो बेहतर है
यों ही गूँजते रहे नग़में फ़िज़ाओं में
यों ही थिरकती रहें चाँद की किरणें
बेहतर है
यों ही हर सुबह
उगते रहें फूल
इस गूँगी बेहरी ज़मीन में।
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