सलीब आज भी हैं
सहर होते ही गूँजने लगती हैं
मंदिर की घंटियाँ
मस्जिद की अज़ान
गुरूद्वारे की गुरबानी
गिरजे की वही पुरानी कहानी
सलीब आज भी हैं, बस मसीहा नहीं मिलते
ख़ुश्बू आज भी है , बस फूल नहीं खिलते
मैं कब से प्रतीक्षा में हूँ राम की
मैं कब से सुन रहा हूँ
चीनी हुई दीवारों का तुतलाना
मैं कब इन्तिज़ार में हूँ
एक तारा टूटने के
मैं कब से खड़ा हूँ
कर्बला के मैदान में लिए पानी
पर सभी पैगंबरों की सूरत अनजानी
चुक गई हैं
मंदिर की घंटियाँ , मस्जिद की अजान
गुरूद्वारे की गुरबानी
गिरजे की पुरानी कहानी
और जब बह निकला ख़ून
मंदिर का मस्जिद से
मस्जिद का गुरूद्वारे से
गुरूद्वारे का गिरजे से
तब अर्थहीन हो गयी मेरी प्रतीक्षा
भाप बन कर उड़ गया
कर्बला का पानी
इतिहास दोहराता रहेगा कहानी
लेकिन अब भरना ही होगा
यह ताज़ा लहू
उन इंसानो की शिराओं में
जो गूंगे , बहरे ही नहीं अंधें भी हो
जिनका मंदिर, मस्जिद , गुरुद्वारा , गिरजा
कही सड़कों पर नहीं
बल्कि उनके दिलों में हो।
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