एक टूशन और
हमारे देश में , या'नी भारत वर्ष में जिसे लोग India के नाम से भी पुकारते हैं , कुछ लोग हिन्दोस्तान कह कर पुचकारते हैं तो चंद लोग हिन्दोस्तान के नाम में पाकिस्तान का क़ाफ़िया लगा कर हिन्दोस्तान की ग़ज़ल गाते रहते हैं , इनको गुरु नहीं गुरु घंटाल कहते हैं , हमारे देश में या'नी ऋषि मुनियों के देश में , बाबाओं और ब्रह्मकुमारियों के देश में , हमारे देश में या'नी देवी और देवताओं के देश में , सात्विक नेताओं और पवित्र वैश्याओं के देश में , हमारे देश में या'नी गुरु और गुरु घंटालों के देश में एक मास्टर के ज्ञान की प्यास को कौन बुझा सकता है। हमारे देश में मास्टर की अनेक प्रजातियाँ पाई जाती हैं , कुछ मास्टर ग़रीब और ईमानदार होते हैं , वास्तव में ईमानदार होने की वजह से ही वो ग़रीब होते हैं , कुछ मास्टर रंगीन और शौक़ीन होते हैं , विशेषरूप से हिन्दी साहित्य के मास्टर। जैसे कि कुत्तों की बेहतरीन नस्लों को घर के ड्राइंग रूम में सोफों और कुशनों पे पसरने की इजाज़त होती हैं वैसे ही हिन्दी साहित्य के मास्टरों को हिन्दी साहित्य के प्रांगण में लेटने की इजाज़त होती हैं। हिन्दी साहित्य के मास्टर हिन्दी साहित्य के आँगन में ऐसे पसरते हैं जैसे कोई गधा मैदान की मिट्टी में लोट लगाता है। हिन्दी साहित्य के मास्टरों के पूर्वज गुरु जी कहलाये जाते थे। इनके अनेक शिष्य होते थे , शिष्यों का होना ज़रूरी था क्योंकि गुरु - शिष्य की प्राचीनतम परम्परा को निभाए बिना गुरु को कोई अस्तित्व नहीं। इन गुरुओं की लीला अपरम्पार होती थी , ईश्वर के बाद इन्हीं गुरुओं का नंबर आता था। अगर ईश्वर कोई बात नहीं सुनता था तो उस बात की अर्ज़ी गुरु जी के दरबार में लगाई जाती। अर्ज़ी पर सुनवाई भी होती और उस पर अमल भी होता लेकिन इस प्रणाली में शिष्य कुछ और ग़रीब हो जाता। इस प्रकार गुरु अमीर से अमीर होते गए और शिष्य ग़रीब से ग़रीब। कुछ गुरु तो इतने अमीर हो गए कि उनके संग्राहलयों में बेशक़ीमती अंगूठें शीशे के इमरतबानों में आज भी मौजूद है। ये अंगूठे कोहिनूर हीरे से भी ज़्यादा क़ीमती हैं।
इन गुरुओं की शानो
- शौक़त के क्या कहने। इनके दरबार में किस चीज़ की कमी न होती। बड़े बड़े राजा भी इनसे
भयभीत रहते। स्वर्ग की रमणियाँ इनके दरबार में नृत्य करती। ये जब चाहे किसी को भी राजा से रंक या रंक से राजा बना
सकते थे। इनके आगे सबकी बोलती बंद रहती। ये किसी भी रानी को गर्भवती कर सकते थे , वास्तव में अधिकाँश रानियों की ये हार्दिक इच्छा होती कि कोई गुरु उनको गर्भवती
बनाये ताकि उनका और गुरुओं का वंश चलता रहें। इन गुरुओं की मेहरबानी से ही भारतीय माता
कलंकित हुई , न दुर्वासा और सूर्य देव की कृपा से कुंती विवाह से पहले ही गर्भवती बनती और न
कुंती नवजात कर्ण को नदी में बहा कर भारतीय नारी को कलंकित करती। अगर ये गुरु
आज भी हमारे समाज में होते तो दुनिया की कोई
भी औरत बाँझ नहीं रह पाती , कम से कम भारतीय नारी तो कदापि नहीं क्योंकि ये
तो पुरानी परम्परा है कि पहले अपना पेट भरो फिर अतिथि का , मतलब भूखे पेट भजन न हो गोपाला।
धीरे धीरे समय बदला तो गुरुओं का रंग-ढंग भी बदला। जब शिष्यों
ने ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो गुरुओं ने
अपना चोला बदला।अब गुरु , गुरुघंटाल बन गए और शिष्य चांडाल बन गए। पहले गुरु के पास कोई डिग्री न होती थी लेकिन अब गुरुओं के लिए ज़रूरी है कि कम से कम MA की डिग्री हो और अगर
कॉलेज में पढ़ाना हो तो डॉक्टर की डिग्री हो। अब पीएचडी करना तो बच्चों का खेल नहीं
लेकिन उतना मुश्किल भी नहीं। अगर आप ४ साल
तक गहन अध्ययन नहीं कर सकते , अगर आप पीएचडी का थीसिस स्वयं नहीं लिख सकते तो
चांडाल किस दिन काम आएंगे। ये चांडाल पूरी भाग दौड़ करेंगे , कही से भी कैसे भी आपके लिए थीसिस लिखवा
कर लाएंगे , ये अलग बात है कि इस काम में
भी ये दलाली खा जाएँगे। चांदी के चंद सिक्के
फैंकिए और १ महीने में आप का थीसिस तैयार हो जायेगा। सब कुछ आयोजित और प्रायोजित ढंग से होगा।
जैसा माल वैसा दाम। थीसिस में गोल्ड
, सिल्वर और ब्रोंज मेडल्स होंगें।
थीसिस लेखन की क़ीमत मेडल्स के हिसाब से होगी , ज़ाहिर है गोल्ड मैडल की क़ीमत सबसे अधिक होगी। Timeline की अलग क़ीमत है , अगर काम जल्दी करवाना है तो दाम और बढ़ जाएँगे। थीसिस के साथ साथ अगर कुछ साहित्यिक
पेपर्स भी लिखवाने है तो उसकी क़ीमत अलग। अगर मास्टर जी चाहे तो अपने आप को साहित्यकार
बना कर भी प्रस्तुत कर सकते है। जी हाँ ,
ठीक सुना आपने , साहित्यकार बनने के लिए ज़रूरी नहीं कि आप बचपन से लेखन करे और
मास्टर के लिए तो बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं।
वो तो वैसी ही हिन्दी साहित्य के मास्टर है या'नी आधे साहित्यकार पहले से ही है। साहित्य का बाज़ार खुला हुआ
है , जी हाँ , शेयर बाज़ार की तरह साहित्य का बाज़ार भी खुला हुआ
है। भाव रोज़ ऊपर नीचे होते रहते हैं। अदब बिक
रहा है , फ़नकार बिक रहे हैं ,
साहित्यकार
बिक रहे हैं , सब कुछ बिक रहा है
और खरीदने वालों की भीड़ लगी हुई है। हर कोई
डॉक्टर की उपाधि चाहता है , हर कोई साहित्यकार
बनना चाहता है। ऐसे माहौल में मास्टर जी के
लिए साहित्यकार बनना कोई मुश्किल काम नहीं। बस गाँठ में पैसा होना चाहिए फिर अल्लादीन
का चिराग़ और उसका जिन्न सब कुछ आपका होगा।
अब इस जिन्न से क्या
नहीं करवाया जा सकता। साहित्य की उर्वर भूमि
पर जिन्न से रोज़ साहित्यिक वृक्ष लगवाएं। ग़ज़ल
के फूल , गीतों की कलियाँ , लघुकथाओं के पौधे , दोहो के खीरे , कविता की बेल , कहानी के पेड़ , उपन्यासों के जंगल उगवाएँ या'नी झटपट साहित्यकार बन जाएँ। हींग लगे न फिटकरी
रंग चोखा ही चोखा , क्या हुआ जो पब्लिक को दिया थोड़ा - सा धोका। जमीर बिक गया तो क्या हुआ दिल तो धड़क रहा है न अभी
, साँस तो चल रही है , साँस है तो आस है। यक़ीन मानिये हिन्दी साहित्य का मास्टर बहुत ख़ास है। हिन्दी के नाम पे अभी बहुत कुछ बाक़ी हैं , मास्टर जी सम्मान के , जी हाँ सम्मान के..साहित्यिक सम्मान के फरियादी
है। मास्टर जी का सम्मान होना चाहिए , सम्मान का ये उन्वान होना चाहिए ' सरस्वती सम्मान '।
माँ सरस्वती को इन्होने जीवन भर छला है। माँ सरस्वती को इनसे और इन्हें माँ सरस्वती से गिला है। माँ सरस्वती की तस्वीर पर धूल जमी है , उनकी वीणा के तार भी टूटे पड़े हैं। मास्टर जी करते हैं रोज़ लक्ष्मी जी की पूजा , साथ साथ करते हैं गृह लक्ष्मी की भी पूजा। अल्लादीन के चिराग़ का जिन्न आजकल गृह लक्ष्मी की सेवा में व्यस्त हैं। उनको मॉल घुमा कर लाना , पिक्चर दिखवाना , शॉपिंग करवाना और नई नई पोशाकें दिलवाना। आजकल जिन्न बहुत ख़ुश रहता है। मास्टरनी की सेवा में उसका जी लग गया है। चरम सुख का आनंद आ रहा है , मास्टरनी भी आजकल व्यस्त है , पहले से अधिक मस्त है। मास्टर जी अब बड़े कवि बन गए है , रातों को कवि - सम्मेलनों में जाना पड़ता है। कभी कभी हफ़्तों घर नहीं लौटते। अपनी ही पत्नी या'नी मास्टरनी पर हास्य रस की अनेक कवितायेँ लिख डाली हैं , कवि -सम्मेलनों में बजती तालियों पर ताली हैं , मास्टर जी के गुलाबी चेहरे पे बिखरी लाली है लेकिन भीतर सब ख़ाली ख़ाली है। अब मास्टर जी बन गए है परीक्षक , जिसको चाहे कर दे पास , जिसको चाहे कर दे फेल। जोड़ने - घटाने में निपुण हो गए हैं। कोर्स की किताबों की कमेटी के सदस्य बन गए है। अब तो वारे - न्यारे है , यार - दोस्त ख़िदमत कर कर हारे हैं । जिसको चाहे उसकी रचना लगवा दे , या'नी जिसको चाहे उसे कवि बना दे। पुरस्कार और सम्मानों की लाइन लगी है अब तो हर ख़ुशी फुलझड़ी है। नई नई पुस्तकों का होता रहता लोकार्पण है , मंत्री जी के चरणों में कुछ उन्होंने किया अर्पण है। अब तो विश्व हिन्दी सम्मलेन में सरकारी मेहमान बन कर जाएँगे , एक बार नहीं कई बार वो जाएँगे। कुछ सच्चे साहित्यकार भरेंगे आहे लेकिन मास्टर जी मुस्कुरायेंगे , गुनगुनायेंगे , देखते देखते महान साहित्यकार हो जाएँगे।
मास्टर शब्द के सौंदर्य को कौन नकार सकता है। मास्टर तो देश का निर्माता है , रोज़ बच्चों को पढ़ाता है , देश का भविष्य बनाता है , बनवाता है। बस बात इतनी सी है मास्टर नहीं होना चाहिए ग़रीब क्योंकि ग़रीब तो अपनी ग़रीबी में ही दम घोंट देता है। हिंदी साहित्य का मास्टर तो वंदनीय , अनुकरणीय है , शिक्षक दिवस , कविता दिवस और हिन्दी दिवस पर तो हिन्दी साहित्य के मास्टर का पूजन - अर्चन होना चाहिए। उनकी लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए। उनके लिए मास्टर वंदना का पाठ करना चाहिए। मास्टर ही देश का निर्माण करते हैं , मास्टर नहीं किसी से डरते हैं , जो चाहे वो करते हैं। लेकिन जिन्न वाला ये मास्टर अब भी ग़रीब है , ढूँढ रहा एक टूशन और है।
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