Saturday, December 7, 2024

शहर और जंगल - भय

 भय 


एक पटरी पर 

धड़धड़ाती गुज़र जाती है रेल 

और मैं पहुँच जाता हूँ 

अपने घर सकुशल 

शाम की चाय के साथ 

जब मन से निकल जाता है 

भय आतंकवाद का 

तो मैं एक बार फिर निकल जाता हूँ 

शहर की 

सुनसान खाली सड़कों पर 

आख़िर 

मौत के दस्तावेज़ तो मेरे पास नहीं 

और अपने समय से पहले कोई मरा हो 

ऐसा भी मुझे याद नहीं 

पर क्या करूँ इस रात का 

बिस्तर पर आँख मूँदते  ही 

आ खड़ा होता है कल 

हाँ , कल 

दफ़्तर 

रेल से जाऊँ

बस से जाऊँ 

या पैदल ?


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

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