कबूतर
मेरे घ्रर की बॉलकनी से
लगभग दस फुट की दूरी पर थी
सामने वाली चाल की बड़ी छत
जिस पर उड़ते थे
रोज़ शाम को कबूतर
रंग - बिरंगे कबूतर
एक टोली कबूतरों की
उड़ती एक किलोमीटर दूरी से
आसमान में दोनों टोलियाँ
घुल - मिल जाती
और फिर शुरू होता
उन कबूतरों को वापिस बुलाने का खेल
ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें लगती -
आओ .. आओ ...आओ
सीटियां बजाई जाती
और दो मिनट के बाद ही
कबूतरों की टोली
आपने आपने मालिकों की आवाज़ की
दिशा में लौटती ,
कबूतरों के छत पर उतारते ही
उनकी गिनती होती ,
मालिक एक निगाह में
ताड़ लेता उस कबूतर को
जो दूसरी टोली का होता
और ग़लती से
इस टोली के साथ आ गया होता
तब कबूतर के
असली मालिक को
अपना कबूतर वापिस लेने के लिए
देनी पड़ती थी बड़ी रक़म
जैसे आज भी कोई नेता दाल बदले
तो चुकानी पड़ती है बड़ी क़ीमत।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
No comments:
Post a Comment