कोचवान मानसिंह
मेरे ताँगे का कोचवान मानसिंह
मंझला क़द और था वो मोटा
रंग था उसका काला
जिस पर सफ़ेद
नेहरू टोपी , कुरता - धोती
ख़ूब फ़ब्ती
बायीं तरफ से माथा था पिचका
मुँह मैं सदा पान या गुटका
एक हाथ में चाबुक
और दूसरे में लगाम
बाज़ार सीता राम से
तुर्कमान गेट तक का
ताँगे का सफ़र
होता था बहुत रोमांचक
कोचवान ज़ोर ज़ोर से
जुमलों को उछालता -
ज़रा हट के , ओ बाबू जी
ओ मौला जी ..ओ बीबी
ओ तेरी बहिन की ...
और ताँगा तीर की तरह
आगे बढ़ जाता
राहगीर झट रास्ता देते
बाजू में सरक जाते
तुर्कमान गेट पार करते ही
ताँगा बाल भवन की
ख़ाली सड़क पर
दौड़ पड़ता और २० मिनट में
पहुँच जाता रॉउज़ ऐवेन्यू
आंध्र स्कूल के गेट पर ,
ताँगे से कूद हम झट-पट
चढ़ जाते थे स्कूल की सीढ़ियाँ ,
आज बरसों बाद खड़ा हूँ
स्कूल की सीढ़ियों के सामने
स्कूल की छुट्टी हो गयी है
और बच्चें स्कूटर , कारों
और स्कूल बस में
सवार हो कर लौट रहें हैं
अपने - अपने घर ,
अब ताँगे नहीं चलते
नहीं है कोचवान मानसिंह
न उसका घोडा
न चाबुक है और न लगाम
स्कूल बस में
बच्चें बैठें हैं बिलकुल शांत।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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