साकेत में उर्मिला और लक्ष्मण की भूमिका
‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और
आँखों में पानी ‘
राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की ये कालजयी पंक्तियाँ नारी जीवन के कटु यथार्थ को उजागर करती है। मैथिली
शरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को झांसी से
तीस किलोमीटर दूर चिरगांव कसबे में रामचरण सेठ के घर में हुआ था। कविता उनको विरासत में मिली थी। उनके पिता बृज भाषा में कविताएँ लिखते थे। स्वतंत्रता
संग्राम के समय उनकी कृति '
भारत - भारती ' ने साहित्य जगत में
नए प्रतिमान स्थापित किये और जन जन में स्वंत्रता
की चिंगारी जगाई . उनकी इस उपलब्धि पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने उन्हें ' राष्ट्र-कवि 'की उपाधि से सम्मानित
किया। मैथिली शरण गुप्त को खड़ी बोली
का प्रथम प्रवर्तक माना जाता है। उनका
जन्मदिन 3 अगस्त ‘कवि दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने अपने जीवन
काल में 2 महाकाव्य, 19 खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटक आदि का सृजन किया। हिंदी के अलावा वे बृज , बांग्ला , संस्कृत
और फ़ारसी भाषा के ज्ञाता थे। उन्होंने विशेष रूप
से पौराणिक आख्यानों के नारी पात्रों का पुनर्मूलयांकन किया और उन्हें अपनी रचनाओं में नए रूप में प्रस्तुत
किया हैं। नारी पीड़ा को उजागर करते पात्रों
में उर्मिला (साकेत महाकाव्य), यशोधरा (काव्य) और विष्णुप्रिया खण्डकाव्य विशेष रूप से उल्लेखनीय
हैं।
आज हम उनके महाकाव्य साकेत के पात्र उर्मिला और लक्षमण पर चर्चा करेंगे। इससे पूर्व कि हम इस विषय को आगे बढ़ाये , आइये एक नज़र साकेत
महाकाव्य पर भी डाल लें। महाकाव्य ' साकेत ' का लेखन उन्होंने
1917 में आरम्भ
किया और इसको पूर्ण कर 1931 में प्रकाशित किया। साकेत का नाम भी इसीलिए साकेत रखा गया क्योंकि अयोध्या
नगरी का प्राचीन नाम साकेत था और इस महाकाव्य के माध्यम से कवि ने रामायण की कथा को
नए परिप्रेक्षय में प्रस्तुत किया है। प्रारंभिक सर्गों में श्री राम को वन वनवास का
आदेश , अयोध्यावासियों का क्रंदन एवं रूदन और बाद के सर्गों में लक्ष्मण
की पत्नी उर्मिला के वियोग का चित्रण हैं। अगर गुप्तजी ने उर्मिला को
इस महाकाव्य का केंद्र न बनाया होता तो उर्मिला का नाम इतिहास के पन्नों में
दबा ही रह जाता। साकेत की रचना के लिए उन्हें 1932 में मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया। साकेत महाकाव्य द्विवेदी युग का सर्वश्रेष्ठ
ग्रन्थ माना जाता है।
साकेत महाकाव्य उर्मिला
को केंद्र में रख कर रचा गया है। उर्मिला , सीता की छोटी बहिन और लक्ष्मण की पत्नी थी। एक किदवंती के अनुसार
उर्मिला 14 वर्षों
तक सोती रही थी ताकि वनवास के दौरान उसके पति
लक्ष्मण अपने भाई श्री राम और भाभी सीता की रक्षा कर सकें। लेकिन साकेत में उर्मिला और लक्ष्मण को राजा और
रानी न मान कर साधारण स्त्री - पुरुष के रूप
में प्रस्तुत किया है। लक्ष्मण तो अपने भाई - भाभी के साथ वनवास चले जाते हैं लेकिन
उर्मिला अपनी ससुराल में अकेली रह जाती है।
पति लक्ष्मण के प्रति उसकी आस्था और संताप इन पंक्तियों में देखें –
“मानस-मंदिर में सटी, पति की प्रतिमा थाप,
जलती-सी उस विरह में, बनी आरती आप”
उसके मन में विरह का इतना दर्द था कि वह सब कुछ भूल चुकी थी। अपने मन
मंदिर में पति की प्रतिमा को प्रतिष्ठापित
करने के बार वह स्वयं आरती के दीप की लौ की तरह जलती रही थी। साकेत में चित्रित उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हर्दियस्पर्शी प्रसंग और विरह की मार्मिक अभिव्यक्ति पाठकों को झकझोर देती हैं।
आँखों में
प्रिय-मूर्ति थी, भूले थे सब भोग,
हुआ योग से भी अधिक उसका विषम-वियोग!
आठ पहर चौंसठ घड़ी, स्वामी का ही ध्यान!
छूट गया पीछे स्वयं, उसका आत्मज्ञान!!
विरह की मर्मान्तक पीड़ा से उर्मिला जल रही थी। विरह की नागिन उसे रह रह कर डसती जाती थी।
वह सब कुछ भूल चुकी थी और उसे कोई भी भोग अच्छा न लगता था। उसे हर समय बस अपने स्वामी का ध्यान रहता और वे
गुमसुम बैठ आंसू बहती रहती। आठों पहर उर्मिला , लक्ष्मण की यादों
में डूबी रहती है ओर अपनी सुध - बुध भी भूल जाती है। दूसरे पात्र
भी उसकी इस दयनीय स्तिथि से दुखी थे।
दोनों ओर प्रेम पलता है
सखी , पतंग भी जलता हैं , हां , दीपक भी जलता है।
प्रेम की जलन में जलते हुए उर्मिला पर प्रेम के अनेक रहस्यों
से पर्दा उठता है। वह अपनी सखी के साथ अपनी विरह पीड़ा को साझा करते
हुए उससे कहती है कि जब शमा से लिपटकर परवाने जलते हैं यानी जब दीपक में पतंगे जलते
है तो दोनों तरफ प्रेम पलता है , अर्ताथ प्रेम में पतंगे भी जलते है ओर दीपक भी । दोनों एक
दूसरे के पूरक बन जाते हैं। जब तक दोनों एक दूसरे से लिपट नहीं जाते उन्हें चैन नहीं
पड़ता।
जब प्रकति अंगड़ाई लेती है , जब साँसों में वसंत उतरता है , जब कलियाँ अपना घूंघट खोलती हैं ओर भौरें मदमस्त कलियों
का रस पीते हैं , जब चाँदनी रात ह्रदय
के तारों को झंकृत कर देती है तो ऐसे में प्रिय
की याद किसको नहीं सताएगी , बदन की खुशबू मन को
अधीर कर देती है तो उर्मिला भी कभी कभी अधीर हो उठती है ओर खुद से कहती है -
' मेरे चपल यौवन - बाल
!
अचल अंचल में पड़ा सो , मचल कर मत साल।
बीतने दे रात , होगा सुप्रभात विशाल।,
खेलना फिर खेल मन के पहन के मणि माल। '
उर्मिला रात दिन अपने
पति लक्ष्मण के वियोग में तड़पती है। नींद उसकी
आँखों से उड़ चुकी है ओर जब नींद आती भी हैं तो उसके पति लक्ष्मण उसके सपनों में आ जाते हैं। सपनों में पति को देख वह लजा जाती हैं और अपना मुख
लज्जा से उनकी छाती में छुपा लेती हैं।अपने पति लक्ष्मण के कार्य और बलिदान के लिए
उर्मिला गौरान्वित है । इस कठिन समय में भी
मधुर स्मृतियाँ उसका सम्बल बनी हुई हैं।
इस महाकाव्य का समापन उर्मिला और लक्ष्मण के मिलन से हुआ है
लेकिन इसके पीछे उर्मिला के त्याग को नहीं भुलाया जा सकता। स्वयं दुखी रहते हुए भी
उसने संयुक्त परिवार के प्रति हँस हँस कर अपनी ज़िम्मेदारी निभाई। साकेत की ऐसी उर्मिला विश्व की हर नारी के लिए अनुकरणीय हैं।
प्रियतम के गौरव ने
लघुता दी है मुझे, रहें दिन भारी।
सखि,
इस कटुता में भी
मधुरस्मृति की मिठास, मैं बलिहारी!
डॉ रवीन्द्रन टी
हिन्दी विभागाध्यक्ष
संत जोसेफ प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज
रेसीडेंसी रोड , बंगलुरु
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