लघुकथा - सालगिरह मुबारक
" सालगिरह मुबारक हो हिन्दी बहिन ".. उर्दू ने नक़ाब उठाते हुए कहा।
- " बहुत धन्यवाद उर्दू बहिन , एक तुम्हीं हो जो मुझे अभी तक बहिन कहती हो वरना आज के दौर में इतना लम्बा रिश्ता कौन निभाता है ? " हिन्दी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया
- " अरे ये सब छोड़ो , आज तो जश्न का दिन है। आज तो तुम्हें ख़ूब तोहफ़े मिलेंगे। काश कोई हमारी भी सालगिरह मनाता। ख़ैर तुम तो ज़िंदगी की मौज लो। " उर्दू एक साँस में बोल गयी।
- " मेरे लिए तो जिन्दगी सज़ा बन चुकी है , तुम मौज की बात कर रही हो " हिन्दी ने मायूसी से कहा।
- " जिंदगी नहीं ज़िंदगी बोलो मेरी बहिन , क्या तुम मुझे भूलती जा रही हो ? " उर्दू शिकायती लहज़े में बोली।
- " अरे , कोई बोलने दे तब तो बोलूँ , जैसे ही नुक़्ता लगाती हूँ , लोग ज़बान काटने को तैयार रहते हैं। " हिन्दी ने दबी ज़बान में कहा।
- " अच्छा , ये तो ज़ुल्म है , तो मतलब अब हमारा गंगा - जमुनी प्रेम ख़त्म ? " उर्दू ने अकुलाते हुए पूछा।
- " लगता तो ऐसा ही है बहिन फिर भी मेरी कोशिश रहेगी जब तक निभा सकूँ ...." हिन्दी ने बुझे स्वर में कहा।
दोनों बहिनों ने एक - दूसरे की कौली भरीं और अपने अपने रास्तों पर मुड़ गयीं।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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