Friday, September 13, 2024

लघुकथा - सालगिरह मुबारक

 लघुकथा - सालगिरह मुबारक 


" सालगिरह मुबारक हो हिन्दी बहिन ".. उर्दू ने नक़ाब उठाते हुए कहा।  

- "  बहुत धन्यवाद  उर्दू  बहिन  , एक तुम्हीं हो जो मुझे अभी तक बहिन कहती हो वरना आज के दौर में इतना लम्बा रिश्ता कौन निभाता है ? " हिन्दी  ने  मुस्कुरा   कर जवाब दिया 

- " अरे  ये सब छोड़ो , आज  तो जश्न का दिन है।  आज तो तुम्हें ख़ूब तोहफ़े मिलेंगे।  काश कोई हमारी भी सालगिरह  मनाता। ख़ैर तुम तो ज़िंदगी की मौज  लो। " उर्दू  एक साँस में बोल गयी।

- " मेरे लिए तो जिन्दगी सज़ा बन चुकी है , तुम मौज की बात कर रही हो " हिन्दी ने मायूसी से कहा। 

- " जिंदगी नहीं ज़िंदगी बोलो मेरी बहिन , क्या तुम मुझे भूलती जा रही हो ? " उर्दू  शिकायती लहज़े में बोली। 

- " अरे , कोई बोलने दे तब  तो बोलूँ  ,  जैसे ही  नुक़्ता लगाती हूँ , लोग ज़बान काटने को तैयार रहते हैं। " हिन्दी  ने  दबी ज़बान में कहा। 

- " अच्छा , ये तो ज़ुल्म है , तो मतलब अब हमारा गंगा - जमुनी प्रेम ख़त्म  ? " उर्दू ने अकुलाते  हुए पूछा। 

- " लगता तो ऐसा ही है बहिन  फिर भी मेरी कोशिश रहेगी जब तक निभा सकूँ ...." हिन्दी ने बुझे स्वर में कहा।   


दोनों बहिनों ने  एक - दूसरे  की  कौली भरीं और अपने अपने रास्तों पर मुड़ गयीं। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

       


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