रतन स्टेशनर्स
चूड़ीवालान के नुक्कड़ पर
रतन स्टेशनर्स की दुकान
पर जाना होता था
लगभग रोज़ ही
कभी पेंसिल, कभी कॉपी
कभी रबड़ ख़रीदने
तो कभी पेन की
निब बदलवाने,
सिल्क के कुर्ते पर चाँदी
के बटन
और गले में सोने की चैन
लटकाये
रतन बाबू, पेन की मरम्मत करने में उस्ताद थे
मैं अक्सर अपने और पिता जी
के
टूटे पेन की मरम्मत उन्हीं
से करवाता
उस ज़माने में
बॉल पेन का चलन
उतना नहीं था
जितना कि निब वाले पेन का,
पेन के लिए अलग से
निब और स्याही ख़रीदी जाती
पेन में स्याही भरी जाती
तब जा कर काग़ज़ पर उतरते
शब्द
बरसों तक इस्तेमाल किये
जाते थे
ये निब वाले पेन
और इसी कारण बन जाता था
एक संवेदनात्मक सम्बन्ध
इन रंग-बिरंगे पेनों से,
सहेज कर रखता था
उन्हें मेज़ की दराज में
या किसी लकड़ी की मंजूषा में,
धीरे धीरे निब वाले पेन का
चलन खत्म हो गया
और बॉल पेन से भर गए बाज़ार
आज पाँच रुपए में बॉल पेन
उपलब्ध है
जिन्हें इस्तेमाल कर
फेंक दिया जाता है बेदर्दी
से
और नहीं रहता उनसे कोई
रिश्ता
लेकिन कितने कीमती होते हैं
वो पेन
जिनकी निब और स्याही
बनते हैं गवाह काग़ज़ पर
उतरती मेरी कविताओं के।
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