साइकिल
आज भी
भूला नहीं हूँ वो दिन
जब पहली बार
चलाई थी साइकिल
शुरु में कैंची की चाल
फुड़वाये थे गोडे
छिलवाई थी खाल
ख़ाली सड़क पर टर्न टर्न
साइकिल की घंटी के संगीत से
दिल होता था बाग़ बाग़
साइकिल के पहिये की
रफ़्तार के साथ
बढ़ जाती थी दिल की धड़कन
रोमांच से ,
आज १२० किलोमीटर की रफ़्तार से
दौड़ता हूँ मोटर - कार
लेकिन कोई रोमांच
महसूस नहीं होता
और अफ़सोस कि
अब मुझसे चलाई नहीं जाती
साइकिल
बस देख कर साइकिल सवारों को
भरता हूँ आह
और याद करता हूँ
अतीत का रोमांच।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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