Friday, September 13, 2024

लघुकथा - आख़िर तुम हो कौन ?

 लघुकथा - आख़िर तुम हो कौन ?


काली रात का सीना चीर कर  सूरज की किरणों ने धरती की पेशानी चूमी तो धरती खिलखिला उठी। सूरज की रौशनी से ज़र्रा - ज़र्रा जगमगा उठा   लेकिन एक बरगद के नीचे एक काली छाया सिहर उठी। कोई उसके वसन खींच रहा था  , तो कोई उसको घसीट रहा था। कोई उसे सजा रहा था, तो कोई उसे फुसला रहा था।  कुछ लोग तो उसका अपहरण करने की फ़िराक़ में थे और कुछ उसे कोठे पे बैठाने की कोशिश में जुटे थे। दूर से नज़ारा  देखते कुछ फ़िरंगी उसके वजूद को तोड़ने की कोशिश में लगे थे। काली छाया की दर्दनाक कराह सुन  कर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उसके क़रीब  जा कर उससे पूछा ," आख़िर तुम हो कौन ? "  छाया सकुचाते हुए धीरे से बुदबुदाई - " जी...जी...मैं  हिन्दी हूँ   और आज मेरा जन्मदिन है। " 


लेखक -  इन्दुकांत आंगिरस

No comments:

Post a Comment