Sunday, September 1, 2024

लघुकथा- उबले अंडे

 उबले अंडे 


कंपनी के कर्मचारियों को कम्पनी की तरफ़ से दिन में दो बार चाय ओर लंच मुफ़्त दिया जाता था। लंच में  शाकाहारी भोजन ही परोसा जाता  ,यानी चिकन -मटन नहीं लेकिन उबले अंडे ज़रूर परोसे जाते। ।   वैसे तो कमल ओर उसके दोस्त शाकाहारी थे लेकिन अंडे सभी खाते थे। भोजन के साथ 2 उबले अंडे।  उबले अंडों की ख़ुश्बू उनके नथुनों में घुसती , उँगलियाँ उबले अंडों की तरफ़ बढ़ती लेकिन तभी दूर से हनुमान चालीसा की आवाज़। अंडों की तरफ़ बढ़ते हाथ वापिस खिंच गए और दोस्तों की टोली भारी मन से दाल - भात खाने लगी ।  कमल बिफ़रते  हुए बोला - " यार , ये लोग मंगलवार और शनिवार को ही अंडे क्यों परोसते हैं ? मैंने पिछले हफ़्ते कैंटीन मैनेजर को बोला भी था लेकिन वो ही ढ़ाक के तीन पात। " 

- " अरे , तुम नहीं समझोगे , ये सब कॉस्ट कटिंग है और इसमें कैंटीन मैनेजर कुछ नहीं कर सकता। ये फ़ैसला  कम्पनी के मालिक लोग करते हैं। " दूसरे दोस्त  ने कहा। 

- " लेकिन मंगलवार और शनिवार को छोड़ कर दूसरे दिन भी तो अंडे दिए जा सकते हैं ? " कमल ने नराज़गी से पूछा। 

- " भाई  , तुझे बताया ना  अभी , कॉस्ट कटिंग , कंपनी पैसे बचाती है ।  कम्पनी को मालूम है  कि 90 प्रतिशत अंडे खाने वाले लोग हनुमान के भक्त हैं और मंगलवार और शनिवार को अंडे नहीं खाएंगे। इसे कहते है साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।  " तीसरे दोस्त ने मजबूती से अपना तर्क रखा। 

-" समझ गया भाई , समझ गया , सरमायेदार मज़दूर को कुछ भी मुफ़्त नहीं देता और अगर कुछ देता भी है तो बहुत नाप-तोल कर।  " कमल ने दबी आवाज़ में  कहा। 

- " समझ गए ना  अब , इसीलिए सरमायेदार , सरमायेदार होता है और मज़दूर , मज़दूर होता है , बिलकुल रेल की पटरियों की तरह।  " 

सब दोस्त मिलकर अपने दार्शनिक दोस्त के वक्तवय को खुले मुँह और बोझिल आँखों से सुन रहे थे।  


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस    


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