आवारागर्दी
पुरानी दिल्ली की गलियों में
अक्सर आवारागर्दी करता
कई बार बिना किसी काम के
घंटो गलियों में घूमता रहता
और उठाता रहता लुत्फ़
बाज़ार और दिलचस्प लोगों का,
चूड़ीवालान में घुस कर
कभी नई सड़क
तो कभी जामा मस्जिद निकल जाना
उस समय नहीं थी
कोई ज़िम्मेदारी
सिर्फ सैर सपाटे को निकलता,
गलियों में गोश्त की दुकानों पर लटके
बकरों के निर्जीव शरीर
जमी ख़ून की बूँदें
रुमाली रोटी ओर कबाब की ख़ुश्बू
घुस जाती नथुनों में
दड़बेनुमा घरों के दरवाज़ों पर
बँधे बकरे और टहलते मुर्गे
जो अक्सर कुछ दिनों बाद
हो जाते गायब उन दरवाज़ों से,
टाट के परदों के पीछे की ज़िंदगी को
जानने की जिज्ञासा
आख़िर कैसे रहते हैं ये लोग ?
कौन हैं ये लोग जो खा जाते हैं
अपने ही पालतू जानवरों को।
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