प्रेम नदी
प्रेम एक तन्हा ख़ामोशी है
यह अजाब पल पल कटता है
सदियों की मानिंद
एक अंतहीन सन्नाटा
मुझे हर पल डसता है
बेतरतीब बिखरी किताबों के अल्फ़ाज़
धीरे धीरे उतरते हैं मेरी रूह में
धीरे धीरे एक अनजाने शोर से
भर जाता है दिल
एक गूंगा शोर
जिसकी आवाज़ मुझे भी सुनाई नहीं देती
और बाहर
शोर में लिपटी यह दुनिया
मेरे दिल से टकरा कर
पीड़ा की एक अंतहीन नदी में
पसर जाती है
एक अंतहीन सन्नाटा
मेरे भीतर के सन्नाटें को
लील लेता है
और में तब्दील हो जाता हूँ
एक अदद पत्थर में
जिससे फूटती है
प्रेम की वही चिर परिचित अनंत नदी
पर शायद यह प्रेम नदी
समंदर के घर का पता भूल गयी है ।
No comments:
Post a Comment