प्रेम फूल
तुम पीड़ा की इस अंतहीन नदी में
मुझे अकेला छोड़ गए
जिन लहरों पर सवार होकर
मैं आता था तुम्हारे द्वार
और तुम करती थी
मेरा प्रेमाभिसार
आज वही लहरें
गुमसुम बैठी है उदास
और तुम
नदी के उस पार
मुझसे अनजान
भटक रही हो अंतहीन जंगलों में
और मैं यहाँ
प्रेम नदी के गहरे जल में
समाधिस्थ हूँ
और प्रतीक्षा कर रहा हूँ उस पल की
जब तुम्हारी हथेली पर
टपका मेरा आँसू
बदलेगा एक फूल में
मुहब्बत के फूल में
जो हमारी आत्मा में
कभी न मुझनाने वाला
वसंत बनकर महकेगा ।
No comments:
Post a Comment