Saturday, June 29, 2024

खुली आँखों का आकाश

 खुली आँखों का आकाश 


मैं तुम से दूर बहुत दूर 

इस सन्नाटे में 

लम्हा लम्हा बिखरता हूँ 

भूले बिसरे ख़तों के अल्फ़ाज़ 

धीरे धीरे मेरी आत्मा में उतरते हैं 

और मैं

तब्दील हो जाता हूँ 

एक अदद सन्नाटे में 


बिखरे हुए बिस्तर  की सिलवटे 

गाती  हैं दुःख भरा गीत 

और मैं

तन्हाई में बनता हूँ 

उन गीतों का संगीत 


तुम दूर बहुत दूर 

एक साफ़ सुथरे बिस्तर पर 

एक रौशनी की मानिंद सो रही हो 

तुम्हारी बंद आँखों में 

परोसते ख़्वाबों  की तस्वीर को 

मैं रोज़ उकेरता हूँ 

अपनी आत्मा के कैन्वस पर 


तुम अभी 

नींद से जागोगी 

ख़्वाबों  की सब तस्वीरें 

बिखर जायेंगी 


तुम्हारी खुली आँखों का आकाश 

तुमसे दूर बहुत दूर 

इस बेतरतीब कमरे में 

टूट रहा है लम्हा लम्हा 


आओ  अब आ भी जाओ 

ये आकाश टूट कर 

बिखर न जाये 

समेत लो इसे अपनी बाँहों  में 

इससे पहले कि

यह गहरी नींद सो जाये । 



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