प्रेम फूल
वसंत में खिलती
कलियों की ख़ुश्बू में भीगा
अनूठा है ये प्रेम फूल
अनमना , अलसाया -सा
धूप की चादर ओढ़
बेसाख़्ता पसर जाता है
छाया की छन छन में
आकाश , नदी , पहाड़
झरनें ,पेड़
सबको पार कर
बँध जाता है
अनंत प्रेम के बंधन में
शबनम के अधरों पर
गीत बन कर महकता है
नदी की लहरों पर सवार हो कर
करता है तय अनजाने
प्रेम द्वीपों का सफ़र
जन्नत के जम जम में
आज यही प्रेम फूल घायल है
और इससे रिसते
रक्त की नदी में
डूबा हूँ सर तक मैं
एक अंतहीन सन्नाटा
लील रहा है मेरी आत्मा को ।
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