प्रेमाग्नि का हलाहल
मैं शायद
दुनिया के उन कम
ख़ुशनसीब लोगों में से एक हूँ
जिन्होंने प्रेम को भरपूर जिया है
हँसते हँसते प्रेमाग्नि का हलाहल पिया है
प्रेम के टूटने की पीड़ा
अपने आप में
एक ऐसा दर्दीला गीत हैं
जिसकी चीख़ से
ये धरती भी फट सकती हैं
आकाश भी टूट सकता हैं
सागर भी सूख सकता हैं
लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता
बस दर्द कि अंतहीन नदी का
रिसना बंद नहीं होता
मैं जलते मरुस्थल पर
नंगे पाँव हूँ भागता
जल जाती है मेरी रूह भी
बस वीरान आँखों में ठहरा
पानी नहीं सूखता ।
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