Saturday, June 29, 2024

स्पर्श

 स्पर्श 


मैं रोज़ जाता हूँ दफ़्तर

चंद पैसे कमाने के खातिर 

और दोपहर के भोजन के बाद 

तन्हा  सुड़कता हूँ एक चाय 

वही चाय की दुकान के सामने 

मैली ज़मीन पर बैठी 

वो बदसूरत अधनंगी  बुढ़िया 

अपनी पैबंद लगी गठरी में 

रह रह कर टटोलती 

ज़िंदगी के गुज़रे साल 

उसके ढले हुए स्तन 

अक्सर उसके ढीले ब्लाउज से 

बाहर झलकते रहते

झुर्रिओं से भरा चेहरा  

उलझे हुए खिचड़ी से बाल 

लटकी हुई खाल


अपनी पैबंद लगी गठरी में 

टटोलती ज़िंदगी के गुज़रे साल 


अजीब सुरों में कुछ पुकारती 

अपने गूँगे हाथ पसारती 

उसके बदन से उठती बास 

यकायक मेरे ज़हन में कई 

अनकहे सवाल गए जाग  


कहा होंगे वे कठोर हाथ 

जिन्होंने कभी किया होगा मर्दन 

उन कठोर स्तनों का

 कहा होगा वो राजदुलारा

जिसने अपने नन्हे होठों से 

पिया होगा दूध उन पुष्ट स्तनों का 

शायद उड़ा रहा हो सिगरेट का धुआँ आस-पास 

एक  लावारिस ज़िंदा लाश 

जिसे थी बस स्पर्श की तलाश 

लोग भीख में फैकते   सिक्के 

लेकिन बचते उसके स्पर्श से 


वह खाती  सूखी डबलरोटी 

पानी में भिगो कर

हँसती   रो रो कर 

उसे मिल जाता  पेट भरने को 

दाना पानी 

बस स्पर्श नहीं मिलता 

दिल का फूल नहीं खिलता 

और मै 

ख़रीद लाया हूँ बाज़ार  से 

कैन्वस और रंग 

बनाऊंगा  एक तस्वीर 

उस बुढ़िया की 

दुनिया उस तस्वीर  को देख कर 

यकीनन रह जाएगी दंग


मैंने कैन्वस पर 

सारे  रंग उड़ेल दिए 

पर तस्वीर अभी भी अधूरी है 

उसके स्तनों में फिसलती 

उन नन्ही मासूम उंगलिओं के स्पर्श से 

शायद यह तस्वीर मुकम्म्ल हो जाये 

या शायद नहीं भी 

बेहतर है कुछ तस्वीरों का अधूरा ही रह जाना 

अच्छा  लगता है सुनना कभी कभी 

ज़िंदगी का दर्दीला गाना ।







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