स्पर्श
मैं रोज़ जाता हूँ दफ़्तर
चंद पैसे कमाने के खातिर
और दोपहर के भोजन के बाद
तन्हा सुड़कता हूँ एक चाय
वही चाय की दुकान के सामने
मैली ज़मीन पर बैठी
वो बदसूरत अधनंगी बुढ़िया
अपनी पैबंद लगी गठरी में
रह रह कर टटोलती
ज़िंदगी के गुज़रे साल
उसके ढले हुए स्तन
अक्सर उसके ढीले ब्लाउज से
बाहर झलकते रहते
झुर्रिओं से भरा चेहरा
उलझे हुए खिचड़ी से बाल
लटकी हुई खाल
अपनी पैबंद लगी गठरी में
टटोलती ज़िंदगी के गुज़रे साल
अजीब सुरों में कुछ पुकारती
अपने गूँगे हाथ पसारती
उसके बदन से उठती बास
यकायक मेरे ज़हन में कई
अनकहे सवाल गए जाग
कहा होंगे वे कठोर हाथ
जिन्होंने कभी किया होगा मर्दन
उन कठोर स्तनों का
कहा होगा वो राजदुलारा
जिसने अपने नन्हे होठों से
पिया होगा दूध उन पुष्ट स्तनों का
शायद उड़ा रहा हो सिगरेट का धुआँ आस-पास
एक लावारिस ज़िंदा लाश
जिसे थी बस स्पर्श की तलाश
लोग भीख में फैकते सिक्के
लेकिन बचते उसके स्पर्श से
वह खाती सूखी डबलरोटी
पानी में भिगो कर
हँसती रो रो कर
उसे मिल जाता पेट भरने को
दाना पानी
बस स्पर्श नहीं मिलता
दिल का फूल नहीं खिलता
और मै
ख़रीद लाया हूँ बाज़ार से
कैन्वस और रंग
बनाऊंगा एक तस्वीर
उस बुढ़िया की
दुनिया उस तस्वीर को देख कर
यकीनन रह जाएगी दंग
मैंने कैन्वस पर
सारे रंग उड़ेल दिए
पर तस्वीर अभी भी अधूरी है
उसके स्तनों में फिसलती
उन नन्ही मासूम उंगलिओं के स्पर्श से
शायद यह तस्वीर मुकम्म्ल हो जाये
या शायद नहीं भी
बेहतर है कुछ तस्वीरों का अधूरा ही रह जाना
अच्छा लगता है सुनना कभी कभी
ज़िंदगी का दर्दीला गाना ।
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